
भाई बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक भैया दूज
दीपावली में मनाए गए चार पर्व के बाद पांचवा संलगन पर्व है भैया दूज।हम यो ही कह सकते है गौतम प्रतिपदा जहा गुरु शिष्य के पवित्र भावों को आत्मसात कर गुरुता के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देता है वही भैया दूज भाई बहन के मधुर,पवित्र स्नेह संबंधों मे जीवन्तता लाने को इंगित करती है।वैसे भी भाई बहन के पवित्र रिस्ते समाज की विशिष्ट परम्परा का निर्वहन है।माता,बहन और बेटी के इस पवित्र संबंध से बढ़कर संसार मे स्नेह संबंध दूसरा नही है।भाई दूज के इस पर्व को बहन हर्सोल्लास से मनाती है।
रक्षाबंधन और भाईदूज समानांतर पर्व है।जैन इतिहास और परम्परा में बताया जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के कारण बड़े भाई नन्दिवर्धन के मन मे शोक व उदासीनता छा गई। वे इतने व्याकुल हुए कि दो दिन तक भूखे प्यासे घर मे अकेले बैठे रहे।जबकि अन्य राज परिवारो ने प्रतिपदा को धारण कर लिया। इसकी खबर जब बहन सुदर्शना को मिली तो वह प्यारे भाई नंदिवर्धन के पास पहुंची।मधुर और विवेक युक्त कथनो से भाई की व्यथा कम करके आग्रहपूर्वक पारणा कराया।भाई ने बहन सुदर्शना को वस्त्राभूषण देकर सम्मानित किया और बहन ने भैया का टीका कर शोक निवारण कर इस दिन को पर्व का,खुशियों का रूप प्रदान किया।
भाई बहन का यह पवित्र पर्व धूमधाम से पौराणिक काल से मनाया जाता है।समाज मे दूसरे अन्य रिस्तो में कड़वाहट भले आ गई हो,लेकिन भाई बहन के इस पवित्र और मधुर संबंध में आज भी उतनी पवित्रता विधमान है जितनी पौराणिक काल मे रही है।आज समय के अनुकूल रिस्ते कड़वे जरूर हो गए है लेकिन आज भी बहन को बोझ नही समझा जाता है।यह खून के रिस्ते का सच है कि भाई अपने बहन के और बहन अपने भाई के दुःख में दुखी जरूर होते है।एक दूसरे की पीड़ा जरूर महसूस की जाती है।
भाई बहन का यह स्नेह ,पवित्र और माधुर्य के प्रतीक रूप में मनाया जाता है।बहन भाई को अपना पवित्र स्नेह देती है।भाई बहन को माता के रूप में पाकर उसका आशीर्वाद ग्रहण करता है।भाई बहन के इस पवित्र प्रेम की प्रेरणा देने वाला यह पर्व भैयादूज के नाम से वैदिक परंपरा में भी एक पैराणिक कथा के आधार पर मनाया जाता है।
दूज का चांद
रामायण का एक पावन प्रसंग है।सीता माता अशोक वाटिका में शोक मुद्रा में बैठी हुई थी।उसके अंतर मानस में राम बसे हए थे।वह विविध कल्पनाएं संजोए हुए थी कि राम कैसे आयेंगे?उसी समय रावण सामने आकर खड़ा हो गया।उसने सीता से पूछा,सीता तू यह तो बता कि राम और मेरे में क्या अंतर है।मैं तो राम से भी बढ़कर हूँ, देख मेरा विराट वैभव।सीता ने नीची निगाह करके कहा ,रावण तुम तो पूनम के चांद हो और राम दूज के चांद है।पूनम का चांद सुनते ही रावण का मुख कमल खिल उठा।मन मयूर नाच उठा।वह मन मे सोचने लगा,सीता मुझे अब चाहती है।
इसलिए मुझे पूनम का चांद कहा है और राम को दूज का चांद।सीता ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा।मूर्ख मेरी बात का रहष्य समझे बिना ही उछल रहा है।पूनम का चांद पूर्ण विकसित होता है।किंतु उस विकास के पश्चात उसका हास प्रारंभ हो जाता है।वैसे ही भौतिक दृष्टि से तुमने पूर्ण विकास कर लिया है।पर अब अनैतिक आचरण के कारण तुमारा हास्य प्रारंभ हो गया है।पर राम तो द्वितीया का चांद है।द्वितीया का चांद सदा सदा बढ़ता ही रहता है।इसी का कारण है सभी दूज के चांद को देखना चाहते है।सभी उसी के मंगल दर्शन करना चाहते है।
भाई भार नही होता
प्रातः काल का समय था। एक लडकी एक लड़के को पीठ पर बांधकर पहाड़ पर चढ़ रही थी।पहाड़ की चोटी पर से एक संत नीचे आ रहै थे।तलहटी की और उसने उस लड़की को देखा और पूछा,बहन !इतना भार लेकर पहाड़ कैसे चढ़ेगी?तेरी पीठ पर तो लड़के का इतना भार है।लड़की ने उस सन्त को नमस्कार किया।और कहा गुरुदेव !भार नही है, यह तो भैया है।भैया का भार नही होता।भैया तो हमेशा ही हल्का ही होता है।जहाँ अपनत्व होता है वहा पर भार नही लगता,वहाँ पर भार भी आभार हो जाता है।
बहन का भार भाई ने उतारा
एक गुजरात के बड़ौदा नरेश शियाजी राव अपने महामंत्री अश्विनी घोष के साथ घोड़े पर बैठकर घूमने के लिए प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा को निहारकर पुनः बड़ौदा लौट रहे थे।रास्ते मे एक महिला बैठी हुई थी,उसने जंगल मे से कंडे एकत्रित किये थे पर वह पोटला उठा नही पा रही थी।वह राह देख रही थी कि कोई भी व्यक्ति इधर से आये और वह मेरे सिर पर यह भार रख दे।उसने घोड़े पर चढ़े हुए दो व्यक्तियों को देखा।उसने आवाज दी अरे भाई जरा इधर आना और मेरे टोकरे को मेरे सिर पर रख देना।भाई शब्द सुनते ही सयाजीराव घोड़े से नीचे उतर गए और उंन्होने वह टोकरा उठाया और बहन के सिर पर रख दिया।अश्विनी घोष यह देखकर मुस्कराने लगे,शियाजी ने पूछा।आप कैसे मुस्करा रहे है।?कोई कारण होना चाहिए।
अश्विनी घोष ने कहा । राजन,बहन के सिर पर भाई भार रखता है या बहन के सिर का भार उतारता है? आपने तो बहन के सिर भार रख दिया है।क्या यह उचित है? शियाजी को अपने भूल का परिज्ञान हुआ।उंन्होने पुनः उसके सिर रखा हुआ टोकरा उतार दिया और अपने पास जितना भी पैसा और आभूषण थे वे उस बहन को दे दिए।और कहा मैं तुमारा भाई हूँ। आज से बच्चों के अध्ययन आदि की सारी सुविधा भाई की और से की जाएगी।
बहन के स्नेह ने भाई की प्रतिमा को चमकाया
मारवाड़ की बात है।कोसो तक एक ऊंट पानी के लिए व्यक्ति को जाना पड़ता है। उस दुष्काल की विकट स्थिति में मारवाड़ का एक नॉ जवान चलते चलते सिद्ध पुर पाटन पहुंचा। कई दिनों का भूखा प्यासा था। चलने के कारण अत्यदिक थका हुआ था।एक उपाश्रय के बाहर विश्राम के लिए बैठा। उपाश्रय में आचार्य देव प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन समाप्त हुआ श्रोतागण अपने घर लौट रहे थे,पर किसी श्रोता ने उस युवक की तरफ देखा तक नही। एक बहन जो जैन श्राविका थी। जिसका नाम लक्ष्मी था। उसने देखा उस लड़के का चेहरा भूख से म्लान था। उस तेजस्वी युवक का चेहरा एकदम मुरझाया हुआ था। उसने नजदीक जाकर पूछा।भाई ,तुम कौन हो? यहा पर कैसे बैठे हो और कहा से आये हो?नॉ जवान ने कहा मारवाड़ में भयंकर दुष्काल है और उस स्थान से पीड़ित होकर मैं मजदूरी करने के लिए यहाँ पर आया हूं। चलो घर चलो ,स्नान आदि करके भोजन उसने कहा मैं मेहनत करके भोजन करूंगा। तुमने मुझे बहन कहा है बहन के यहाँ संकोच नही होना चाहिए। उसने भोजन किया। बहन ने स्वतंत्र मकान दे दिया और प्रबल पुरुशार्थी उस नॉ जवान ने धीरे धीरे प्रतिभा के आधार पर विकास किया और एक दिन वह महागुजरात का महामंत्री बन गया।
भारतीय संस्कृति में त्योहार व पर्व केवल मिष्टान्न, खाना व नये कपड़े पहनकर मौज शोक करने के लिए नही है। किंतु इन पर्वो के साथ उच्च सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक और सामाजिक उत्सव जुड़े हुए है।पर्वो के बीच जो हमारे समाज को,त्याग ,पराक्रम ,पुरुषार्थ, उदारता ,सहयोग भावना और भाई बहन के समर्पण भाव ,त्याग और पवित्र मनोभावों को एक सुरम्य आकार प्रदान करते रहते है।
( कांतिलाल मांडोत )