धर्म- समाज

जन्म दिवस पर विशेष : हिन्द के पीर गुरु गोविंद सिंह

सिखों के दसवें तथा मानवीय रूप में अंतिम गुरु गोविंदसिंह का जन्म 5 जनवरी 1666 को पटना में हुआ था। करीब 9 वर्ष यानि 24 नवम्बर 1675 को गुरु बने। इस संसार से विदा लेने से पहले गुरु ग्रन्थ साहिब को सिखों का अगला गुरु घोषित किया। खालसा पंथ की स्थापना करके उंन्होने सिख धर्म को मौजूदा स्वरूप प्रदान किया। उनके द्वारा किए गए कार्यो में गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण करना भी शामिल है। नॉवे सिख गुरु तेग बहादुर और उनकी पत्नी माता गुजरी के यहां पटना में जन्मे गोविंद सिंह का प्रारंभिक नाम गोबिंद राय था। जन्म के समय उनके पिता आसाम की धार्मिक यात्रा पर थे। जनश्रुति है कि वर्तमान हरियाणा के करनाल के ठाकसा गांव के एक फकीर पीर भीकन शाह ने उनके जन्म की भविष्य वाणी पहले ही कर दी। एक दिन नमाज करते वक्त भीकन शाह ने पूर्व की तरफ सिजदा किया जबकि इस्लामिक उपासना पद्धति में पश्चिम की और मुह करके नमाज पढ़ी जाती है। जब गांव वालों ने उन्हें इस आश्चर्य भरे व्यवहार के बारे में पूछा तब पीर साहब ने बताया जिसे ईश्वर ने उद्धारक तौर पर चुना है। पटना में पैदा होगा। जो कि पूरब में पड़ता है। इसके बाद पीर भीकन शाह अपने कुछ शिष्यों के साथ उस बच्चे को देखने पटना गए। उंन्होने मिठाई से भरे दो कटोरे उस बच्चे के आगे रखे। एक कटोरा मिठाई हिन्दू के यहाँ से और दूसरे कटोरे की मिठाई मुसलमान के यहां से खरीदी गई। जो इस बात की प्रतीक थी कि भारत मे हिन्दू और मुस्लिम दो प्रमुख धर्म है । बच्चे ने दोनों कटोरे पर हाथ रख दिए जो इस बात का सूचक है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों को बराबरी का व्यवहार किया जाएगा।

एक अन्य जनश्रुति के अनुसार अम्बाला जिले के लखनोर के फकीर अरफदीन ने भी इस बालक का सजदा किया था और उसे देवदूत घोषित किया था। यह बालक गोबिंदराय ही थे। गोबिंद राय ने अपने जीवन के प्रारंभिक पांच वर्ष पटना में ही बिताए थे। बचपन मे दूसरे बच्चों के साथ युद्ध के खेल खेलते थे। एक बार पटना के निः संतान राजा फतेहचंद और उनकी पत्नी पंडित शिवदत्त के यहाँ गए और उनसे एक बच्चे का आशीर्वाद मांगा।शिवदत्त ने उन्हें सलाह दी कि यदि गोविंद राय जैसा निष्पाप निश्छल बच्चा उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करेगा तो उनकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। तब राजा और रानी ने गोविंद राय से प्रार्थना कि वे उनकी संतान प्राप्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करे।संतान बिल्कुल गोबिंद राय जैसी ही हो।तब गोबिंद राय हल्के से मुश्कराए और बोले कि मेरे जैसा कोई दूसरा नही हो सकता। इसलिए रानी साहिबा उन्हें ही अपना बेटा बुला सकती है।उस दिन से रानी उन्हें बाला प्रीतम के नाम से बुलाने लगी।अब भी कही कही गुरु गोबिंद सिंह का उद्धरण देते वक्त बाला प्रीतम शब्द का प्रयोग करते है। राजा रानी ने गोबिंद राय और उनके दोस्तों के लिए महल के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिए।उनके खाने के लिए एक बड़ा हाल भी बनवाया।

आनंदपुर निवास

गुरु तेग बहादुर ने बिलासपुर के राजा से जमीन खरीदकर 1665 में आनंदपुर साहिब का शिलान्यास किया था।पूर्वी भारत की यात्रा के पश्चात उंन्होने अपना परिवार आनन्दपुर साहिब बुला लिया। तब इस जगह को चक्क नानकी कहा जाता था। शिवालिक पवर्तमाला की तलहटी में बसे इस शहर में गोबिंद राय ने मार्च 1672में पैर रखा।आनन्द पुर साहिब में साहिब चंद से उंन्होने पंजाबी सीखी। काजी पीर मोहम्मद ने उन्हें फारसी और उर्दू का ज्ञान दिया। उन्हें सैन्य प्रशिक्षण के लिए एक राजपूत योद्धा नियुक्त किया गया था।1675 में कश्मीर पंडितों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किए जाने के खिलाफ गुरु तेग बहादुर ने मुगल बादशाह औरंगजेब से बात की। औरंगजेब को यह बात पसंद नही आई और उसने 11 नवम्बर को गुरु तेग बहादुर का चांदनी चौक दिल्ली में सरे बाजार सिर कलम करवा दिया।

गुरु गोबिंद सिंह के बढ़ते प्रभाव से बिलासपुर के राजा भीमचन्द को चिंता होने लगी।आनन्दपुर बिलासपुर में ही स्थित था। उधर गुरुजी ने अपने सैनिको में जोश भरने के लिए नगाड़ा बनाने का आदेश दिया।उसने गुरुजी से आनन्दपुर में एक मुलाकात की। गुरु के दरबार में राजा का भव्य स्वागत किया गया। वहाँ भक्तों द्वारा गुरु को अर्पण किए गए उपहारों को देखकर राजा की आंखे फ़टी रह गई।

खालसा की स्थापना

गुरु गोबिंद राय ने छोटी पहाड़ी पर एकत्रित होने का आदेश दिया।एक चोटे से मंच से उंन्होने अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए प्रश्न किया । मैं तुमारे लिए क्या हूं? आप हमारे गुरु है। समवेत स्वर गूंजा।हम आपके सिख है। जवाब मिला,तब गुरुजी ने सबसे कहा । आज गुरु की अपने सिखो से कुछ चाहिए । हुक्म करो सच्चे पातशाह। सबने आवाज दी।तब गुरुजी ने अपनी तलवार खींचते हुए एक ऐसे स्वयंसेवक की मांग की जो अपना सिर दान करने को तैयार हो। गुरु की पहली आवाज पर सब मौन रहे। किसी ने भी कोई उत्तर नही दिया। दूसरे निमंत्रण पर भी नही। तीसरी बार पूछने पर दयाराम नामक सेवक ने अपना सिर गुरु के चरणों में समर्पित करने की घोषणा की। गुरुजी उसे शिविर के भीतर ले गए जहाँ बकरी पहले ही बंधी थी। गुरुजी ने बकरी का सिर काट दिया और खून से सनी तलवार लेकर फिर बाहर निकले। उंन्होने एक और सिर की मांग की। एक और स्वयं सेवक अपना शीश देने तैयार हो गया।उसे भी अंदर लेकर गुरु वापस लौटे ऐसा तीन बार हुआ। बाद में पांचों सेवक शिविर से बाहर आये जिंदा।उनके कपड़े बदले हुए थे।

गुरु गोबिंद राय ने लोहे के कटोरे में साफ पानी भरा और उनमें बताशे मिला दिए। फिर आदि ग्रन्थ में वर्णित शब्द पढ़ते हुए दुधारी तलवार से पानी को मिलाया। इस मीठे मिश्रण को उंन्होने अमृत का नाम दिया और उन पांचों शिष्यों में बांट दिया गुरु के लिए अपने शिष्य न्योछावर करने वाले इन पांचों शिष्यों को पंज पियारे का नाम दिया गया। ये खालसा पंथ के पहले सिख थे। गुरु ने उनका नाम करण दिया। अब दयाराम भाई दया सिंह हो गए थे। इसी तरह भाई धरमसिंह ,भाई मोहकम सिंह,भाई हिमतसिह और भाई साहिब सिंह का नामकरण हुआ। तब गोबिंद सिंह ने एक पंक्ति कही। वाहे गुरुजी खालसा,वाहे गुरुजी की फतेह ।अर्थात खालसा का संबंध ईश्वर से है।जीत भी ईश्वर की है। बाद में यह पंक्ति खालसा पंथ की प्रधान घोष बन गई।सभी ने गुरुजी ने सिंह नाम दिया और सबको खालसा कहा। गुरुजी ने उन पांचों और पूरी सभा को अचंभित करते । हुए घुटनो के बल झुकते हए पंज पियरो से प्रार्थना कि वे उन्हें भी खालसा बना दे। इस तरह व्यवस्था में गुरुजी छठे खालसा सदस्य बने। उनका नाम बदलकर हो गया गोबिंद सिंह। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह ने सभा को संबोधित करते हुए कहा।

आज से तुम जात पात से हीन हो गए हो।कोई कर्मकांड रस्म नही। हिन्दू हो या मुस्लिम।तुम किसी भी अंधश्रद्धा में विश्वास नही करोगे। केवल एक ईश्वर को छोड़कर। वह सबका मालिक है। और रक्षक भी।एक मात्र सर्जन करता और विनाशक। नई व्यवस्था में सबसे नीचे तब्बके का व्यक्ति भी सबसे ऊंचे तबबके तक पहुंच सकेगा। दोनों के बीच भाई का रिस्ता होगा। तुमारे लिए कोई तीर्थ यात्रा नही। कोई छुआछूत नही लेकिन घर मे शुद्ध जीवन,जिसे धर्म के लिए छोड़ने को तुम्हे तैयार रहना होगा। महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर मानी जाएगी। उनके लिए कोई पर्दा नही,न ही पति की चिंता पर सती होने की जरूरत है। जो अपनी पुत्रियों की हत्या करेगा खालसा उसे कोई संबंध नही रखेगा। मेरे आदर्शों पर अटल रहने के लिए तुम्हे पांच का पालन करना होगा।केश :साधुता का प्रतीक,कंघा :स्वच्छता, कड़ा:एक परम पिता का सूचक,कच्छा:सभ्यता ,कृपाण:स्वरक्षा।

ध्रूमपान एक खतरनाक आदत है। तुम शपथपूर्वक इसे छोड़ देंगे। युद्ध के शब्दो से तुम प्यार करोगे। अच्छे घुड़सवार, निशाने बाज और तलवार बाज बनोगे। तुमारे लिए शारीरिक शक्ति उतनीं ही पवित्र होगी। जितनी आध्यात्मिक संवेदना होती है। और हिंदुओं और मुस्लिमो के बीच तुम एक पुल का काम करोगे ,और जाति वर्ण धर्म देश देखे बिना गरीबो की मदद करोगे। मेरा खालसा हमेशा गरीबो की रक्षा करेगा । तुमारे लिए देग और तेग महत्वपूर्ण होंगे। आज के बाद सिख पुरुष खुद को सिंह कहेंगे और औरतें कौर और एक दूसरे से मिलते समय वाहे गुरु का खालसा वाहे गुरु की फतेह कहेंगे।

( कांतिलाल मांडोत)

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