
चित्त को शुद्ध बनाने का हो प्रयास : आचार्य महाश्रमण
करीब 10 कि.मी. का विहार कर शांतिदूत पहुंचे उजडेश्वर गांव
उजडेश्वर, अरवल्ली (गुजरात) : गुजरात की धरा पर गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महामना आचार्यश्री भिक्षु के परंपर पट्टधर, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ गुजरात के अरवल्ली जिले में गतिमान हैं। आचार्यश्री की पदरज को प्राप्त कर अरावली पहाड़ी शृंखला के आसपास बसे गांव और नगर पावनता को प्राप्त हो रहे हैं।
गुरुवार को प्रातःकाल बायड नगर ने महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रस्थान किया। बायडवासियों ने गुरुचरणों की वंदना कर मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। मार्ग में गतिमान राष्ट्रीय संत के दर्शन करने के लिए स्थान-स्थान पर ग्रामीण लोग उपस्थित दिखाई दे रहे थे। आचार्यश्री से आशीष प्राप्त कर ग्रामीण धन्यता की अनुभूति कर रहे थे। स्थान-स्थान पर कई स्कूलों के बच्चों भी आचार्यश्री के दर्शन कर मंगल आशीर्वाद से लाभान्वित बने। एक स्थान मार्ग पर ही बच्चे बैठ गए तो आचार्यश्री ने वहां कुछ क्षण विराजमान होकर विद्यार्थियों को मंगल पाथेय व आशीष प्रदान की। सभी पर मंगल आशीष की वृष्टि करते हुए आचार्यश्री लगभग दस किलोमीटर का विहार कर अरवल्ली जिले के उजडेश्वर गांव में पधारे। गांव में स्थित श्री एस.वी.टी. कैंपस परिसर में पधारे। आचार्यश्री का आज का प्रवास यहीं निर्धारित था।
विद्या संस्थान के परिसर में ही आयोजित प्रातःकालीन मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने श्रद्धालु जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि यह पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। चित्त का एक अर्थ चैतन्य आत्मा भी कर सकते हैं। हरियाली, पानी आदि सचित्त है। चित्त का एक दूसरा अर्थ मन भी होता है। जैसे आज मेरा चित्त प्रसन्न है। आदमी के भीतर भावधारा भी है। पच्चीस बोल में छह तरह की लेश्याएं बताई गई हैं। इनमें प्रथम तीन लेश्याएं अशुभ और शेष तीन लेश्याएं शुभ होती हैं। सामान्य भाषा में कहें तो आदमी की भावधारा कभी अच्छी तो कभी बुरी भी होती है। मन जिस प्राणी को भी होता है, वह महत्त्वपूर्ण होता है। दुनिया ऐसे अनेक प्राणी ऐसे भी हैं, जिनके मन का विकास नहीं होता। मन का होना विकास होने का एक प्रमाण होता है। मन वाला प्राणी बहुत बढिया कार्य भी कर सकता है तो बहुत घटिया कार्य भी कर सकता है।
जिनके मन नहीं होता वे न तो धर्म की विशेष साधना कर सकते हैं और न ही बहुत ज्यादा पाप कर पाते हैं, किन्तु मन वाला प्राणी बहुत ज्यादा पाप करके सबसे अधोगति अर्थात् सातवें नरक तक जा सकता है तो बहुत उच्च कोटि की साधना कर सर्वाधिक उच्च स्थान मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है।
मन एक ऐसी शक्ति है, जिसका दुरुपयोग हो तो अधोगति की प्राप्ति हो सकती है और अच्छा सुदपयोग हो जाए तो सर्वाधिक ऊर्ध्वारोहण हो सकता है। आदमी अपने मन अर्थात् चित्त को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए। जितना भी संभव हो मन में अच्छे विचार आएं, ऐसा प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि वर्तमान में प्रेक्षाध्यान का पचासवां वर्ष ‘प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष’ चल रहा है। इसमें आदमी को अपने श्वास की प्रेक्षा का प्रयास हो। ध्यान, स्वाध्याय हो। अच्छी पुस्तकों को पढ़ें तो अच्छे विचार भी आ सकते हैं। चित्त को शुद्ध बनाने का प्रयास होता रहे।