आराध्य बनाना आसान है लेकिन अखंड श्रद्धा रखना मुश्किल : आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी
श्रद्धा के पहले तर्क नहीं होने पर वह अंधश्रद्धा हो जाती है
सूरत। शहर के पाल में श्री कुशल कांति खरतरगच्छ जैन श्री संघ पाल स्थित श्री कुशल कांति खरतरगच्छ भवन में युग दिवाकर खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म. सा. ने शुक्रवार 30 अगस्त को प्रवचन में कहा कि श्रद्धा का पराक्रम केवल मनुष्य भव में ही संभव है। उन्होंने कहा कि आनंद का परिणाम क्या है? एक आनंद का परिणाम पुर्नवृत्ति और दूसरा आनंद का परिणाम परिणीती है। आनंद का परिणाम पुर्नवृत्ति है वह श्रवण कला है और आनंद का परिणाम जो परिणीती है वह श्रवण योग है। श्रवण योग का परिणाम वाणी के प्रति श्रद्धा है।
आनंद का परिणाम जीवन में उतारना है। हजारों लोग ऐसे है जो श्रवण क्रिया से भी वंचित है। हजारों लोग ऐसे है श्रवण क़्रिया तो करते है लेकिन श्रवण कला से वंचित है। लाखों लोग ऐसे है श्रवण कला तक सीमित रहकर श्रवण योग में प्रवेश नहीं कर पाते है, कुछ बिरले लोग ही इसमें प्रवेश कर पाते है। कानों से जो सूना जाता है वह श्रवण क्रिया है और बुद्धि से जो सूना जाता है वह श्रवण कला है और हदय से जो सूना जाता है वह श्रवण योग है।
उन्होंने कहा कि जिस क्रिया से हदय जुड जाता है वह आत्मसात हो जाती है। श्रद्धा बहुत दुर्लभ है, श्रद्धा की व्याख्या करना बड़ा मुश्किल काम है। हम वह नहीं देखते है जैसा होता है, हम वह देखते है जैसे हम होते है। अधिकतर लोग अपनी मानसिक अवधारणा का शिकार होते है। आंख, कान भी कभी कभी गलत हो साबित हो जाते है। क्योंकि आंखे भी वहीं देखती है जो सामने है, उसके पीछे का भाग, परिणाम नजर नहीं आता। आराध्य बनाना आसान है, लेकिन उनके प्रति अखंड श्रद्धा रखना बहुत मुश्किल है। तर्क का परिणाम श्रद्धा है और श्रद्धा आने के बाद तर्क विदा हो जाता है। श्रद्धा के पहले तर्क नहीं होने पर वह अंधश्रद्धा हो जाती है।