शिक्षा-रोजगार

अब न करुँगी मैं कोई भी सिंगार

हे सखि……
ना बरसा ई सावन ससुरा,
ना बरसा भादो हरजाई…
बादल में भी पाँख लगा
बरसा दूर देश में जाई….

सुन री सखी…..
पूजा मैंने सगरी देवी-देवता,
डीह-बरम…जो हैं देश-जवार…
सब पाथर के पाथर निकले,
सकल मनौती भई बेकार….
टूट गया भरम बेलपातर का
बेकार गया सब धतूर-मदार…
बरखा अरु साजन की राह तके
मैं तो हो गई हूँ बीमार….

जग जाने है रे सखि….
विधना की लाठी का
कोई नहीं उपचार…….
सखि…जाने कैसी ऋतु ये आई
जाने कैसी बही बयार….
मिलन न हो पाया साजन से,
रहा अधूरा मेरा प्यार…..
विरह व्यथा तो एक तरफ है,
सहा न जाए ननदी के वार….
दुख तो सताए इतना अब कि
सोचूँ मैं यह बारम्बार …..
कि छोड़ चलूँ मैं सब घर-बार

सखी…..तुम तो जान रही हो कि
साजन से ही…है सब सिंगार…
वह भी है परदेस बसा
बिसराए मेरा प्यार-दुलार….

तो सुन री सखी,
अब न करुँगी मैं,
कोई भी सिंगार…..
और न रखूँगी,
कोई भी व्रत-त्यौहार….

कैसे कहूँ… पर सच है सखी री….
इससे तो मैं रही कुँवारी भली…
भला रहा बचपन का प्यार,
क्या सावन की झूला कजरी,
क्या भादो की काली बदरी,
और…क्या बारिश की धार….
बिन सिंगार की मोरि साँवरी सूरत
देखन को लगती रही कतार….

ए सखी..मन तो अब है ऊब चुका
मैं भी न…..अब न करुँगी……
इन निर्मोही से कोई गुहार…
अब ना करुँगी मैं,
कोई भी सिंगार……
और ना रखूँगी,
कोई भी व्रत-त्योहार….
उफ्फर पड़े ई सावन-भादो,
उफ्फर पड़े भतार….
उफ्फर पड़े सब किस्सा-कहनी,
उफ्फर पड़े तीज-त्यौहार….
अब न करुँगी मैं,
कोई भी सिंगार…..
अब न करुँगी मैं,
कोई भी सिंगार……

( रचनाकार: जितेन्द्र कुमार दुबे, अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर,जौनपुर )

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