धर्म- समाज

आत्मा की दिवाली है संवत्सरी महापर्व

संवत्सरी पर्व जैसा अद्भुत पर्व संसार ने कही नही मिलेगा।जब मनुष्य सहज भाव से अपने भूलो पर पश्चताताप करता हुआ दुसरो से क्षमा मांगता है,प्रेम पूर्वक हाथ जोड़ता है और मन में भरा हुआ अपराध वैरभाव मिटाकर प्रसन्न ता से मुस्कुराने लगता है। उसकी इस मुस्कान में सचमुच में एक स्वर्गीय सौंदर्य होता है। यह प्रसन्नता जीवन के कण कण को प्रभावित कर जाती है।

हिन्दू समाज मे होली मिलन एक उत्सव है इसी प्रकार यह सामाजिक उत्सव है जिनमे बन्धु भाव ,स्नेह संवर्धन और पारस्परिक निकटता बढ़ती है। दूर दूर रहने वाले लोग परस्पर मिलकर एक दूसरे से परिचित होते है। होली सामाजिक उत्सव है। मनुष्य मनुष्य से मिलता है किंतु संवत्सरी तो एक ऐसा पर्व है जो सबसे पहले अपने आप को मुलाकात कराता है। मनुष्य को अपने आत्मा की पहचान कराता है।

यह पर्व मनुष्य की बाहर आंख नही खोलता,वह तो खुली है किंतु भीतर की आंख खोलता है और कहता है तू अपने भीतर में देख,अपने आप को देख की तू क्यां है?जो दर्पण तूने दुनिया के सामने कर रखा है। वह अपने सामने करके अपनी आत्मा का चेहरा देखो कि तुम क्या हो?कैसे हो?तुमारे भीतर कितनी बुराइयां है,कितनी अच्छाइयां है? इस चेहरे पर कितने दाग है।

इस महापर्व के साथ भी ईमानदारी नही बरतते है।सिर्फ औपचारिकता से मनाते है यह पर्व। संवत्सरी पर हमारे मन की गांठे खुल जाती है। सात दिन का सामूहिक कार्यक्रम होने के बाद संवत्सरी उपसंहार का निचोड़ है। हमारे धार्मिक जगत में संवत्सरी आत्मा की दिवाली का दिन है।दीवाली की तरह उपवास,प्रतिक्रमण,आलोयना क्षमापना आदि आत्म शुद्धि की जाएगी। मन मे जमा विकारों का मैल, दुर्भावों का कूड़ा का कचरा हटाया जाएगा। मन और आत्मा की शुद्धि करने के लिए तपस्या,प्रयाश्चित प्रतिक्रमण आदि किया जाता है।

साधक एकांत में बैठकर अंतः करण की साक्षी से अपना निरीक्षण करता है। गत वर्ष मैने क्या क्या बुरे काम किए।अपने व्रतों में कहा कहा दोष लगाया। कहा पर अशुद्धि का मैल जमा है।मन की गहराइयों में उतरकर उसका चिंतन करता है। स्मृतियों पर जोर देकर उन कार्यो को याद करता है और चित्र की भांति एक एक पाप उसके सामने आते है।इस आत्म निरीक्षण से मन हल्का हो जाता है।

जिस वीर के हाथों में क्षमा का अमोध शस्त्र है,उसका दुर्जन कुछ भी बिगाड़ नही सकते है। राम का बाण कभी खाली नही जाता था। वही क्षमा का तीर कभी निष्फल नही जाता है।रामबाण से ही इसकी विलक्षणता है। राम का बाण शत्रु का नाश करता था परंतु क्षमाबाण शत्रुता का ही नाश कर देता है। शत्रु को जीवनदान देता है।शत्रु को मित्र बनाता है और शत्रुता को मिटाता है। ऐसा अद्भुत शस्त्र किसी व्यक्ति के पास हो,उसे संसार मे कोई भय नही है। आज हम अभय बनने का संकल्प करें। मन की पवित्रता और मन की निर्भीकता का मार्ग संवत्सरी पर की आराधना करके मार्ग प्रशस्त करे।

मन की गांठे खोलने का दिन 

संवत्सरी के चार महत्वपूर्ण अंग है जो अश्वमेव कर्तव्य है।इसलिए सबसे पहला कर्तव्य है उपवास,दूसरा प्रतिक्रमण,तीसरा आलोयना और चौथा क्षमापना।उपवास में तन,मन की शुद्धि होती है।विकारों की शांति और जिव्हा इंद्रिय का संयम करने के लिए उपवास जरूरी है।उपवास के बाद प्रतिक्रमण,आलोयना और क्षमापना।

मनुष्य कोई भी पाप करता है,चोरी,जुठ,विश्वासघात क्रोध कपट हिंसा ,ईर्ष्या पाखंड या दूसरों की निंदा आदि जो भी विकारी भाव मन है जब यह मन मे उठते है तो इनकी तीव्र तरंगे उठती है तो जैसे शांत सरोवर में कंकर पत्थर फेंकने से उसमे लहरों के चक्रवात उठने लगता है। इसी प्रकार कोई भी दुर्भाव,दुर्विचार विकार हमारे मन मे आते है,उतेजना फैल जाती है।

कोई भी बुरा कार्य किया है।पापाचार किया है।किसी के साथ झगड़ा किया है तो तुरंत उससे क्षमायाचना कर लो,मन का क्रोध,भावों की उग्रता तथा विचारों की कटुता को तुरंत दूर कर दो। पाप को कभी उधार मत रखो।क्योकि पाप की आग जहा भी रहती है अपने स्थान को जलाती रहती है।पाप की गांठे मन की शांतिधारा में रुकावट पैदा करती है।पाप का जख्म जल्दी नही भरा तो नासूर बन जाता है।

ग्रंथो में उल्लेख

एक वर्ष तक किसी पाप का प्रयाश्चित नही किया जाता है तो पाप दुगुना हो सकता है। मन मे छिपाकर रखा हुआ पाप दिन रात बढ़ता रहता है।पैर के लगे काँटों से तो एक ही जगह पीड़ा होती है परंतु पापकर्मो का द्वेष ,क्रोध आदि कुसंस्कारों का कांटा तो शरीर और मन दोनों में ही शूल खड़ा करता रहता है। जैन धर्म मे पाप का तुरंत प्रयाश्चित करने का विधान है। जीवन मे जो भी पाप हुआ है उस पाप की शुद्धि करो।वरना वह पाप कांटा बनकर शल्य बनकर आत्मा में खटकता रहेगा। संवत्सरी का संदेश आज हमें जगा रहा है।

वर्ष भर में जहा भी जाने अनजाने एकांत में या प्रकट में आपस ने कुछ भी पाप हो गया हो,आपस मे किसी के साथ द्वेष विद्वेष हो गया हो,कटुता और संघर्ष की चिंगारी उठी हो। मनोमालिन्य आ गई हो तो आज बालक की तरह सरल मन होकर उन गाँठो को खोल दो,पापो को स्वीकार कर लो,इन पापो की निंदा करो और उनमें छुटकारा पाने का संकल्प करो।

मन की गांठ तो बहुत खतरनाक होती है।धागे में पड़ी गांठ भी कपड़ा नही सी सकती है तो आप और हम निर्ग्रन्थ धर्म के अनुयायी होकर गांठ क्यो रखे हुए है।आत्मा की साक्षी से एक एक पाप को याद करो,उस पर पश्चताताप करो।उस भार को मन से हटा दो।उन पापो की मन की गठरी से उतार कर फेंक दो।

( कांतिलाल मांडोत )

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