रंगों का त्योहार होली प्रेम ,मिलन और सौहार्द का पर्व है
भारत वर्ष पर्व त्योहारों का देश है।होली और दीवाली भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता महानता का प्रतिनिधित्व करते है। इन दोनों पर्वो की विशेषता यह है कि वैदिक और जैन दोनों परम्पराओ के लोग होली दीवाली मिलकर मनाते है। दीपावली प्रकाश पर्व है तो होली रंग पर्व है। होली कभो वसन्तोसव और मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
धूल कीचड़ बुराइयों ,कषायों और वैरभाव के अध्यायात्मिक भावों के स्थूल प्रतीक है। सालभर में घुटन मन मुटाव,वैरभाव दिलो में भर जाते है।होली पर वे सब बाहर निकलते है तो गंदगी दिखती है। स्थूल रूप में धूल उड़ाना बुराइयों पर धूल कीचड़ डालने की स्थूल परम्परा है। ब्रज क्षेत्र में नन्दगाँव बरसाने की लठमार होली देखने विदेशो के लोग भी आते है।
इस अनूठी परम्परा में किसी की बुद्धि क्या सुधार करेगी? नंदगांव कृष्ण का गांव है और बरसाना राधा का।नंदगांव के कृष्ण सखा बरसाने में राधा की सखियों के साथ होली खेलने जाते है। इसी तरह बरसाने की गोपियां नन्दगाँव के ग्वालों से होली खेलने आती है। महिलाएं पुरुषों पर लाठी का प्रहार करती है और पुरुष ढाल से लाठी प्रहार को बचाते है। इस खेल में द्वेष और अश्लीलता का लेशमात्र भी नही होता है। इसे कहते है नन्दगाँव बरसाने का लठामार होली।
ब्रज की अनूठी परम्परा में परिवार का एक युवक होली में नंगे पांव निकलता है। इस प्रदर्शन के लिए वह युवक एक साल तक साधना करता है। हिरण्यकश्यप की बहन होली प्रहलाद को गोद में लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठी। होली को वरदान होने से आग में नही जलेगी। लेकिन भक्त प्रहलाद बच जाता है और होली जल गई।
नागरिकों को होली पर इतना क्रोध था कि दुसरे दिन होली की राख उड़ाई। होली के चरित्र का पतन होता है और वह गिरकर फिर उठती है। वह गिरी तो इतनी गिरी की गिरावट की सीमा तोड़ दी और जब उठी तो उसकी ऊंचाइयों को देखकर गगन भी छोटा लगने लगा।
होली के गिरने उठने की कहानी ही होलिका दहन और धूल या धुलेंडी का द्विदिवसीय पर्व है।आज यह प्रेम मिलन और सौहार्द का पर्व है।
होलिका माता पिता की लाडली तो थी ही,पांचों भाई भी उसे बहुत चाहते थे।उसका कंठ बड़ा सुरीला था। सुंदर भी बहुत थी।सम वयस्क युवकों के साथ खंडहरों में रंगरेलियां मनाने लगी। कहा भी गया है-जिमि स्वतंत्र होहि नारी। अर्थात नारी स्वतंत्र होकर बिगड़ जाती है। स्त्री को कौमार्यावस्था में पिता के सरंक्षण में,विवाह के बाद पति के और पति के मरने पर पुत्र के सरंक्षण में रहना चाहिए। किसी अवस्था मे स्त्री को स्वतंत्र नही रहना चाहिए।
होली का जीव धर्म की शरण में
होली ने संतो को कष्ट देना शुरू कर दिया। आचार्य धर्मघोष सहीत सभी साधु धर्म साधना में सलग्न थे।होली पर संतो का कोई असर नही हुआ तो वह परेशान होकर हार गई। तभी धर्मघोष ने उदबोधन किया।
होलीके तू नही जानती कि तूने अपने कितने जन्म बिगाड़ दिए है। तू इसी तरह भटकती रहेगी। अब भी समय है। धर्म की शरण लेकर आलोचना प्रयाश्चित और क्षमा से अपना जीवन संवार ले।होली पर संतवाणी का प्रभाव पड़ा। होलिका ने कहा आप मेरी मदद करे।
पूर्णिमा को मेरा जन्म हुआ और फाल्गुन पूर्णिमा को मैं जलकर मरी थी। मेरे प्रतीक के रूप में काष्ठ एकत्रित करे और काष्ठ ढेर होली में अग्नि प्रज्वलित करे। होली अपनी आलोचना और पश्चाताप से मुक्त हो गई। तभी से होली मनाने की परंपरा चली आ रही है। आप सभी देशवासियों को होली की शुभकामनाएं।
( कांतिलाल मांडोत )