
धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक संकीर्णता
धर्म का संबल जीवन मे सबसे बड़ा संबल है। धर्म अंतर में साहस का संचार करता है। धर्म की डगर पर चलने वाला कभी लक्ष्य से नही भटकता। धर्म से सदा उत्स की सौगात मिलती है। धर्म से चंचलता मिटती है,मन और इंद्रियों ओर अनुशासन होता है। धर्म व्यक्ति को अपने आप मे जोड़ता है। धर्म सम्पूर्ण जीवन को संतुलित और संयमित बनाता है।धर्म उच्च आवरण के मार्ग को प्रशस्त करता है। धर्म सद्भाव की प्रतिस्थापना करता है। धर्म जीवन और जगत का आधार है। धर्म दुर्गति से बचाकर सुगति करता है। धर्म की महिमा अवर्णीय है। धर्म का संबंध बाह्य क्रियाकांडो में नही है। अपितु आंतरिक जागरूकता से है।
धर्म क्या है,इस संबन्ध में हजारो परिभाषाएं मनीषियों ने दी है। धर्म वस्तु का स्वभाव अथवा चित की अंतःकरण की शुद्धता है।धर्म को संसारभर के सभी मंगलो में सर्वोत्कृष्ट मंगल कहा गया है। जो धर्म से जुड़ा है ,उसके जीवन मे अशुभ और अमंगल स्थान नही है। जिसके धर्म मे श्रद्धा है और जिसके जीवन मे आचरण है।,वह अंतर बाह्य कभी भी दरिद्र नही हो सकता।धर्म कल्पवृक्ष के समान है। अहिंसा,संयम और तप से परिपूर्ण धर्म से जुड़िये। इस जुड़ाव के बाद जीवन मे किसी भी तरह क्लेशों की अवस्थिति नही रहेगी। धर्म सुख और शांति का विस्तार करता है।हर इंसान को चाहिए कि वह अप्रमतभाव से धर्म को जीवन मे व्यवहार में जिये। जो धर्म साधना से शून्य है,उसे और प्रभु के जीवन मे किसी प्रकार का अंतर नही है।
धर्म के मर्म को बहुत कम लोग जानते है। यही कारण है कि धर्म के नाम पर बाहरी क्रियाकांडो एवं संप्रदायवाद का पोषण अधिक हो रहा है। इस पोषण से समस्यआए बढ़ रही है। सच तो यह है कि समस्याओं का सामाधन सदैव धर्म ने ही किया है। धर्म ने कभी भी समस्याओं को उलझाया नही है। उलझाने का कार्य तो धर्म के नाम पर पलने वाली विकृतियों और रुग्ण मानसिकता ही करती है।कई लोग धर्म और संप्रदाय को एक मानकर चलते है। किंतु यह याद रखिये ,धर्म और संप्रदाय एक नही है। इन दोनों में बहुत बड़ा फर्क है। धर्म जीवन को ऊंचाइयां प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण तत्व है। धर्म मे प्रविष्ट संप्रदायवाद स्पष्ट अभिशाप है।संप्रदाय के निर्माण के पीछे भी इतिहास है।
एक सीमा विशेष तक संप्रदायों का महत्व रहा है। उसे हम नकार नही सकते है। किन्तु अवस्था समुचित रूप से चले,इस दृष्टिकोण से निर्मित संप्रदाय जब व्यवस्थाओं के नाम पर व्यथाओं को पुष्ट करने लगते है तो ऐसे संप्रदायों का किसी भी तरह का महत्व नही रह सकता। आज की जो स्थितियां है उनसे आज हरकोई भलीभांति परिचित है।आज सांप्रदायिक कट्टरताओं के नाम पर जिस तरह से जनमानस से जहर घोला जा रहा है, वह घातक है इस तरह की दुष्प्रवृति नई पीढ़ी प्रबुद्ध वर्ग में धर्म के नाम पर जो अनास्था के बीज अंकुरित कर रहे है,वे वस्तुतः अपराध कर रहे है।
धर्म धर्म है। वह स्नेह सदभाव से जीने का संदेश देता है। जो पारस्परिक कट्टरताए दुराग्रह को पैदा करती है और दुराग्रह से विषमता,विग्रह और अव्यवस्था का जन्म होता है। आज सांप्रदायिक संकीर्णताओ से मुक्त रहकर विशुद्ध रूप से धर्म को पावन भूमि पर कार्य करने की जरूरत है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब जब भी आदमी के मन मे सांप्रदायिक विष पैदा हुआ ,तब तब वातावरण में अराजकता का सूत्रपात हुआ है। महाभारत के शांतिपर्व में स्पष्ट रूप से कथन है,जहा सत्य है,वहाँ धर्म का जन्म होता है। करुणा के भाव से उसका विकास होता है। क्षमा के भाव से धर्म ठहरता है। इस तरह की बहस देश मे सुनाई देती है।
हमारा धर्म महान है,हमारा संप्रदाय उत्कृष्ट है और तुम्हारा संप्रदाय विकृस्ट है। हमारे धर्मगुरु सच्चे है और तुमारे धर्म गुरु जूठे है। इस तरह की चर्चाओं में हमने खोया ही खोया है। पाया कुछ भी नही है। अभी भी समय है हमे संभलना चाहिए।हमे अपने दृष्टिकोण को उदात्त बनाना चाहिए।संप्रदाय और धर्म से ऊपर उठकर ही कुछ पाया जा सकता है।धर्म जैसे विशुद्ध स्वरूप को संप्रदायों में विखंडित करने की कुचेष्टाओं से सारा समाज एक बड़ी ही दहनीय स्थिति में आ गया है।ऐसे नाजुक दौर में आदमी आपस मे और अधिक नही बंटे एवं मानवीय मूल्यों का हास न हो इसके लिए हम पूर्ण विवेक से काम ले।इस दिशा में सकारात्मक कदम जरूर उठाए।
( कांतिलाल मांडोत )