संस्कारयुक्त शिक्षा मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण : आचार्य महाश्रमण
जीवन को सदाचार व स्वावलम्बी बनाने को शांतिदूत ने किया अभिप्रेरित
सूरत (गुजरात) : प्राणी जन्म लेता है, जीवन जीता है और एक दिन अवसान को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य भी जन्म लेता है। पहले गर्भस्थ होता है, फिर बाहर प्रकट होता है। आयुष्य लम्बा और परिपूर्ण होता है तो उसके जीवन में बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था भी आती है। इसको संक्षेप में बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी कहा जा सकता है। बालावस्था की अलग जीवनशैली, जवानी में जीवनशैली अलग हो सकती है। चार आश्रमों की बात बताई गई है-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। सौ वर्ष का जीवनकाल मानें तो पच्चीस-पच्चीस वर्ष इन चारों आश्रमों को दिया जाता है।
बचपन और कैशोर्य का समय जो पच्चीस वर्षों का है, वह विद्या के अर्जन का है। इसके लिए पूरी दुनिया में कितने-कितने विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित हैं। अनेक रूपों में विद्या के आदान-प्रदान का चलता है। इस बार का हमारा चतुर्मास भी भगवान महावीर युनिवर्सिटि के कैंपस में हो रहा है। मानों विद्या संस्थान के माहौल में हमारा चतुर्मास हो रहा है। विद्या प्राप्ति मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। विद्या प्राप्ति के साथ अच्छे संस्कार भी पुष्ट हो जाए। संस्कारयुक्त शिक्षा हो जाए तो जीवन सार्थक हो सकता है। अनेक विषयों के महत्त्व के साथ अहिंसा, नैतिकता, ईमानदारी, दया, नशामुक्तता भी जीवन में आते हैं तो किशोरावस्था अथवा युवावस्था सफल हो सकता है।
शास्त्र में कहा गया है कि आदमी कभी वृद्धावस्था को भी प्राप्त हो जाता है। परिपूर्ण आयुष्य है तो वृद्धता भी आती है। बीच में जवानी के लम्बेकाल में अपने ज्ञान का अपने जीवन में उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। कितने ही विद्यालयों के मुख्य द्वार पर लिखा होता है कि ‘ज्ञान के लिए प्रवेश और सेवा के लिए प्रस्थान।’ ज्ञान हो गया और अब सेवा के द्वारा अपने ज्ञान का अच्छा उपयोग करो।
कोई भाग्यशाली मनुष्य होते हैं तो जल्दी ही सन्यास का रास्ता ले लेते हैं। आचार्यश्री तुलसी ने अपने जीवनकाल के बारहवें तथा आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपने जीवनकाल के ग्यारहवें वर्ष में संन्यास का जीवन स्वीकार कर लिया। सभी मानवों के जीवन में संन्यास न भी आए तो आदमी को अपने जीवन को सदाचार से युक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए। वृद्धावस्था में आदमी को निवृत्ति की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। त्याग, प्रत्याख्यान, परिग्रह का अल्पीकरण, ध्यान, जप, तप आदि का प्रयास करना चाहिए। जीवन में स्वावलम्बी बनने का प्रयास करना चाहिए।
उक्त पावन पाथेय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विद्या भारती के महामंत्री श्री अवनिश भटनागर भी उपस्थित थे। उन्होंने आचार्यश्री को वंदन करते हुए कहा कि विद्या भारती देशभर में 25 हजार विद्यालयों के माध्यम से नैतिक, आध्यात्मिक और चारित्र की शिक्षा देने का प्रयास कर रहे हैं। केवल डिग्री हासिल कर लेना शिक्षा नहीं होती। ऐसी ही मंगल प्रेरणा आचार्यश्री प्रदान कर रहे हैं। मेरा सौभाग्य है कि आज मुझे आचार्यश्री के दर्शन व मंगलवाणी को श्रवण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। आचार्यश्री ने उन्हें पावन आशीर्वचन प्रदान किया।
संथारा साधिका स्व. मोहनीदेवी बरड़िया के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘जीवन झरमर’ को उनके परिवार के सदस्यों द्वारा आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया गया एवं समस्त बरड़िया परिवार ने आचार्यश्री के दर्शन किए। आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। सचिन ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी। मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के उपरान्त चतुर्मास व्यवस्था समिति द्वारा सहयोगप्रदाताओं के सम्मान का क्रम भी जारी रहा। आचार्यश्री ने इस उपक्रम में विराजमान होकर मंगल आशीष प्रदान किया।