तन ही नहीं, मन भी रहे स्वस्थ : आचार्य महाश्रमण
शांतिदूत की मंगल सन्निधि में साध्वी रतनश्रीजी (श्रीडूंगरगढ़) की स्मृतिसभा का हुआ आयोजन
सूरत (गुजरात) : भगवान महावीर समवसरण से जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को आयारो आगमाधारित अपने पावन प्रवचन के माध्यम से जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि गलत खान-पान, रहन-सहन और प्राकृतिक प्रभाव से बीमारी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। कोई आदमी स्वस्थ है तो वह उसकी एक उपलब्धि है, किन्तु उसका घमण्ड नहीं करना चाहिए। कब किसको क्या हो जाए। बीमारी कभी हो भी जाए तो उसमें आदमी को अशांत नहीं होना चाहिए, चित्त को शांत बनाए रखने और उसको शांति से सहने का प्रयास करना चाहिए। बीमारी होने के बाद भी मन में शांति और समाधि रखने का प्रयास करना चाहिए।
साधु–साध्वियों के लिए कहा गया है कि बीमारी हो जाए तो उसमें चित्त की समाधि और शांति बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। कोई साधु-साध्वी रुग्ण हो जाए तो उसकी सेवा करना, उसकी परिचर्या करना, अस्पताल दिखाने आदि में भी मन में भी प्रसन्नता रहनी चाहिए। बीमार साधु-साध्वियों की प्रसन्न मन से की गई सेवा भी जीवन की एक उपलब्धि हो सकती है। सेवा सापेक्ष की सेवा करना चारित्रात्मा का समुदाय का कर्त्तव्य होता है। आयारो आगम में कहा गया है कि कभी रोग उत्पन्न हो जाते हैं। पूर्वार्जित कर्मों के योग से साधु को भी बीमारी हो सकती है। किसी को ज्यादा और किसी को कम भी हो सकता है।
साधु को विशेष मनोबल रखने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो अपने जीवन की गाड़ी को मनोबल के द्वारा चलायमान रखने का प्रयास करना चाहिए। जितनी अपेक्षा हो बीमारी का इलाज कराने का भी प्रयास करना चाहिए, लेकिन डरते रहना, अशांत हो जाना, अधीर नहीं होना चाहिए। जहां तक संभव हो उसे सहन करने का प्रयास करना चाहिए। बाह्य के साथ-साथ आंतरिक शांति का भी प्रभाव पड़ता है। एलोपैथी दवाइयों का प्रयोग डॉक्टर की सलाह लेने का प्रयास होना चाहिए। इस प्रकार बीमारी के संदर्भ में कुछ बातें चिंतन और विवेक की भी हो सकती हैं।
बीमारी में भी मनोबल रखने का प्रयास करना चाहिए। बीमारी के आने पर भी चित्त की समाधि, शांति बनी रहे। शरीर की स्वस्थता, चित्त की प्रसन्नता और मनोबल हो। इस प्रकार आदमी का तन और मन दोनों स्वस्थ और मजबूत रहें, यह काम्य है।
आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि कल से पर्युषण महापर्व का प्रारम्भ होने जा रहा है। वर्ष में एक बार चतुर्मास के दौरान इसका प्रसंग आता है जो अध्यात्म और साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण समय होता है। कुल मिलाकर नौ दिनों का उपक्रम होता है। यह चतुर्विध धर्मसंघ के लिए अच्छा अवसर है। आचार्यश्री ने इन सात दिनों में साधु-साध्वियों व गृहस्थों के लिए भी आवश्यक पालनीय दिशा-निर्देश भी प्रदान किए। साथ ही आचार्यश्री ने इस दौरान चलने वाले आध्यात्मिक उपक्रमों के समय आदि का भी वर्णन किया। पर्युषण की आराधना अच्छे ढंग से करने की प्रेरणा प्रदान की।
मंगल प्रेरणा और पर्युषण महापर्व के संदर्भ में पावन प्रेरणा प्रदान करने के उपरान्त आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में दिवंगत साध्वी रतनश्रीजी (श्रीडूंगरगढ़) की स्मृतिसभा का भी आयोजन हुआ। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने उनके जीवन का संक्षिप्त परिचय वाचन करते हुए उनके प्रति मध्यस्थ भावना अभिव्यक्त करते हुए चतुर्विध धर्मसंघ के साथ चार लोगस्स का ध्यान किया। तत्पश्चात साध्वी रतनश्रीजी (श्रीडूंगरगढ़) स्मृतिसभा ने मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी, साध्वीप्रमुखाजी, मुनि ध्यानमूर्तिजी, साध्वी अखिलयशाजी व साध्वी मुक्तिश्रीजी ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। दिल्ली सभा के अध्यक्ष श्री सुखराज सेठिया ने भी इस संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी।
जयपुर से समागत नवरत्नमल बाफना ने अपनी पुस्तक ‘कामधेनु मां रतनाश्री’ आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की।