
पर्वराज पर्युषण आंतरिक जागरूकता का पर्व है
अन्य महत्वपूर्ण दिनों को पर्व कहा जाता है,परन्तु पर्युषण के आठ दिन महापर्व या पर्वाधिराज कहलाते है। इसका कारण है अन्य पर्व के दिनों में मनुष्य बाह्य रूप से सजता है,विभिन्न खाद्य पदार्थ ,मिष्टान्न आदि खाता है,खिलाता है।किंतु पर्युषण पर्व आंतरिक साज सज्जा का पर्व है। यह पर्व मनुष्य की अंतरात्मा की शुद्धि करने के लिए आता है। भोग की जगह त्याग और खुशी की जगह आंतरिक प्रसन्ता तथा मानसिक संतुष्टि प्रदान करना ही इस पर्व का लक्ष्य है।
भोजन की जगह तप का संदेश देता है यह पर्व। इस कारण इसे महापर्व या पर्वाधिराज कहा गया है। गर्न्थो में बताया है जैसे में गंगाजल, पर्वतों में स्वर्णगिरि सुमेरु,वनों में नन्दनवन,पुष्पों में कमल उत्तम है,उसी प्रकार पर्वो में महापर्व पर्युषण श्रेष्ठ और सर्वोत्तम है। इसकी उत्तमता और श्रेष्ठता इसी में निहित है कि यह आत्मा के विकास और विशुद्धि की प्रेरणा देता है,अवसर देता है।
संसार मे जहाँ देखो,उधर ही क्रोध,द्वेष आदि की आग लगी है। वहाँ प्राणी को शांति कैसे मिलेगी। इस आग को बुझाने के लिए महावर्षा की आवश्यकता है। मूसलाधार वर्षा होगी तभी यह आग बुझ सकेगी और मन को शांति,चैन,सुकून मिल सकेगा। तप की वर्षा लेकर आता है पर्युषण।
मन मे,जीवन मे और सम्पूर्ण संसार मे कषायों की आग लगी हुई है।जब तक यह आग जलती रहेगी,मन की भूमि शांत नही होगी। भूमि शांत,शीतल और सामान्य नही होगी तो इसमें धर्म का, ज्ञान का,प्रेम का ,सद्भाव का कोई भी अंकुर नही फूटेगा। भूमि बंजर पड़ी रहेगी। इसलिए मन की भूमि को शांत करने वाली आराधना का अवसर पर्युषण पर्व है।
मन मे जब तक किसी के प्रति द्वेष है,वैर है,कटुता है,बदले की भावना है। अपमान का डंक चुभ रहा है। किसी द्वारा कहे हुए कटु वचन का कांटा चुभ रहा है। प्रतिस्पर्धा की लड़ाई मच रही है। किसी भी प्रकार की उष्णता है तो मन शांत नही रहेगा। भीतर ही भीतर यह बैचेनी बढ़ती जाएगी।शीतल पानी के सरोवर में डुबकी लगा लेंगे तब भी मन की आग शांत नही हो पाएगी और मन की ,आग तब तक शांत नही होगी।
पर्युषण पर्व में छोटे छोटे बच्चो के मन मे भी आज धर्म साधना में सलग्न रहने की होड़ सी दिखाई दे रही है। हर पर्व का अपना एक इतिहास है। लोकोतर पर्व का संबंध आध्यात्मिकता से है। आत्मा से है। पर्युषण पर्व भौतिकता को पुष्ट करने का पर्व नही है। अपने आप मे अनुशासन का पर्व है। विभाव से स्वभाव की और बढ़ने का पर्व है। अपने आप को बाहर से समेटकर भीतर से सलग्न करने का पर्व है। पर्युषण पर्व पर समग्र कषायों की विरक्ति लेते हुए क्षमा विनय सरलता और सौहार्द की अभिव्यक्ति करने का पर्व है।
आज के आदमी को दुनिया भर का ज्ञान है। दुनिया भर से उसका परिचय है पर स्वयं से वह बेखबर है। जब तक स्वयं से सलंग्न नही बनेगा,उसके जीवन की समस्या ये घटने के बजाय और अधिक बढ़ती चली जायेगी। पर्युषण पर्व यही संदेश लेकर समुपस्थित हुआ है कि हम अपने आप से संपर्क स्थापित करे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकांश समस्याओं के मूल में आंतरिक विकारों एवं कषायजन्य विषमताओं का प्राधान्य है। जब तक इनका शमन नही होगा,जीवन के चमन में सुखों के फूल नही खिल सकते।
पर्युषण का संदेश है कि हम समता की अमृत वृष्टि के द्वारा इन ज्वालाओं कोशांत करने का पूरुषार्थ करे।विषयता मूलक सांप्रदायिक संकीर्णताओं से भरे उपक्रमो का कोई महत्व नही है ।समता का विकास ही हमारा ध्येय होना चाहिए ।समता के बिना जीवन का प्रत्येक क्षेत्र अधूरा है।
राग द्वेष विषमता का माध्यम न बनाए
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हमे पर्युषण जैसे महान पर्व को भी राग द्वेष ,विषमता का और अपने अपने पन्थो और परम्पराओ को मजबूत बनाने का माध्यम बना लिया है। पर्युषण के साथ किसी भी विषमता का संबंध नही है।इसके मूल में आध्यात्मिक अभ्युदय का ही लक्ष्य है। पर्युषण में हमे जागरूकता के साथ साधना में स्वयं की पयुक्ति करनी चाहिए। कषायों की उप शांतता के बगैर कितनी ही बाह्य क्रियाओं की सम्पनता क्यो न कर ली जाए,इनका कोई महत्व नही है।
अंतर बाह्य शुद्धिकरण
दान ,शील,तप और भाव की आराधना प्रमुख रुप से संपन्न करना साधक का ध्येय रहता है। संवर,सामायिक,स्वाध्याय, मौन,तप जप आदि की और उन्मुखता पर्युषण के आठ दिनों में रह्ती है। वर्ष भर में प्रमाद आदि के कारण मन वचन और काया के योग द्वारा जो भी अकरणीय हुआ है।
इन आठ दिनों में उन पर चिंतन मनन करके साधक आत्म साक्षी और गुरु साक्षी से प्रयाश्चित करके शुद्धि करण करता है एवं भविष्य में उसकी पुनरावृति न हो,इस प्रकार का संकल्प ग्रहण करता है।
पेट,पेटी और परिवार की फिक्र
पर्युषण महापर्व आध्यात्मिक साधना में सलग्न रहने का पर्व है।पेट, पेटी और परिवार की फिक्र में रात दिन जीवन का समय बीत रहा है। हमे थोड़ा इस जीवन को अध्यात्म से समृद्ध बनाने के लिए भी सचेत होना चाहिए। भौतिक दृष्टि से कितना भी समृद्ध बन जाए,भौतिक दृष्टि थोड़ा सा भी सुख नही दे सकेगी, महान साधकों के जीवन मे सचे सुख और शांति का विस्तार तभी हुआ था,जब उन्होंने अध्यात्म के पथ पर स्वयं को अग्रसर किया।
आज के भैतिक युग मे आदमी ने प्रचुर रूप से गति प्रगति की है।पर इसके जीवन मे फिर भी एक गहन रिक्तता है।इस रिक्तता का कारण है कि मनुष्य में धर्म अध्यात्म का अभाव है। धर्म अध्यात्म का अभाव व्यक्ति को शारीरिक,मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से रुग्ण बना देता है। इस रुग्णता से हमें मुक्त बनना है तथा अंदर बाहर दृष्टि से स्वच्छता से जुड़कर हमें पूर्ण निष्ठा के साथ पर्युषण पर्व की आराधना करनी है।
क्षमता का उपयोग करे
जीवन जागरूकता से उत्कृष्टता का वरण करता है। हम अपने मन मे आधिकारिक पवित्र भावों का समावेश करे।वाणी के द्वारा किसी को कटुवचन न कहे। किसी की निंदा और आलोचना में रुचि रस न ले। सेवा आदि के किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को गंवाने की भूल न करे। धन का अर्जन ही अर्जन न करते रहे,अपितु सत्प्रवृत्तियों को संचालित करने के लिए उसका विसर्जन करना भी सीखे,दुसरो के न्यायाधीश कभी नही बने।ऐसी कोई अनावश्यक बात न सुने,जिसे सुनकर भीतर में विषमता के भावों का जन्म हो।पर्वराज पर्युषण आंतरिक जागरूकता का पर्व है।
( कांतिलाल मांडोत )