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सूरत के चिरकालिक जल-स्मारक की बात: सूरत रेलवे स्टेशन के पास स्थित मुग़लकालीन नंदा शैली की खममावती बावड़ी

प्राचीन समय में पीने के पानी के लिए बावड़ियाँ बनाई जाती थीं; आज ये जल-स्मारक के रूप में पहचानी जाती हैं

सूरत ( विशेष आलेख: महेश कथीरिया ) । सूर्यपुत्री तापी नदी के किनारे बसा सूरत शहर एक समय भारत का सबसे समृद्ध शहर और पश्चिमी तट का एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह था। यहां ‘चौरासी बंदरों का वावटा’ गूंजता था। इसकी समृद्धि, भव्यता और रौनक विदेशी यात्रियों को आकर्षित करती थी। सूरत सदैव स्वप्नदर्शियों, पर्यटकों, सुधारकों और संस्कृति प्रेमियों का नगर रहा है। प्राचीन काल में ‘सूर्यपुर’ कहलाने वाले सूरत में विभिन्न शासकों ने अपने काल में स्मारक, बावड़ियाँ, कुएँ और तालाब बनवाए थे, जिनमें से एक है रेलवे स्टेशन के पास लाल दरवाजा क्षेत्र में किल्ला सेठ की वाड़ी में स्थित नंदा शैली की सात मंजिला खममावती बावड़ी… जो आज भी उस गौरवशाली इतिहास और विरासत की सजीव गवाही देती है।

खममावती वाव लगभग 600 वर्ष पुरानी

लाल दरवाजा के पास छोवाला की गली में, गुजरात में मुगलों के शासनकाल के दौरान 15वीं सदी में बनी यह खममावती वाव लगभग 600 वर्ष पुरानी है और यह मध्यकालीन मुग़लकालीन नंदा शैली की वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है। वणजारी वाव या “बा नो बंगला” के नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी में उतरने के लिए कुल 100 सीढ़ियाँ हैं, यह 20 फीट चौड़ी और 300 फीट लंबी है, जिसमें केवल एक ही प्रवेश द्वार है। भारतीय शिल्पशास्त्र पर आधारित इस दक्षिणाभिमुख वाव में रेत-पत्थरों और मोटी ईंटों का उपयोग किया गया है। इसका निर्माण वणजारों ने किया था। सूखे के समय पानी की उपलब्धता के लिए ऐसी विशेष सीढ़ीदार बावड़ियाँ बनाई जाती थीं।

बावड़ी का कुएं की ओर का हिस्सा किले की दीवार के निकट था। पहले जब यातायात के साधन सीमित थे, तब वणजारे बैलों के माध्यम से सामान एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाते थे। वणजारा केवल सामान पहुँचाने वाला नहीं, बल्कि एक व्यापारी भी होता था। लाखों वणजारे आवश्यक वस्तुएँ समृद्ध क्षेत्रों से दुर्लभ क्षेत्रों में पहुंचाते थे, और उनके बैल देश के कोने-कोने में चलते थे।

पानी की आवश्यकता को देखते हुआ बावड़ी का निर्माण 

एक मान्यता के अनुसार, भारत में पहले राजा भर्तृहरि, वीर विक्रम और लाखा वणजारा नामक तीन भाई थे। राजा भर्तृहरि ने जीवन में संन्यास लिया, विक्रम एक कुशल शासक थे और लाखा के पास एक लाख बैलों की वणजारी थी। इस कारण वह लाखो लाखा वणजारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लाखा वणजारा व्यापार के उद्देश्य से गुजरात, मारवाड़ और काठियावाड़ आता था और लंबे प्रवास के दौरान पानी की आवश्यकता को देखते हुए स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बावड़ियाँ बनवाता था। ऐसा माना जाता है कि सूरत रेलवे स्टेशन के पास लाल दरवाजा क्षेत्र की इस बावड़ी का निर्माण भी लाखा वणजारा ने ही करवाया था।

सौराष्ट्र मूल के वर्षों से सूरत में बसे एक सेठ के पोते ने बताया कि लाल दरवाजा क्षेत्र को किल्ला सेठ की वाड़ी और छगन सेठ वाड़ी के नाम से जाना जाता है। किल्ला सेठ के वारिस राकेशभाई पटेल के छोवाला गली स्थित घर और फड़िया में वणजारा द्वारा बनाई गई पौराणिक बावड़ी आज भी जीवित है। इस क्षेत्र में बाहर से व्यापार करने आए सेठिया लोग रहते थे। यह जगह “बा नो बंगला” के नाम से भी जानी जाती है।

सूरत का प्रवेश द्वार और पहला दरवाजा लाल दरवाजा था

राकेशभाई के पुत्र नील पटेल बताते हैं कि सूरत का प्रवेश द्वार और पहला दरवाजा लाल दरवाजा था। सूरत में प्रवेश के लिए यहीं से आना होता था। लाल दरवाजा क्षेत्र में खोडियार माताजी, सती माताजी और खममावती माताजी की पूजा होती है। वाव के पास गरबा खेलने दूर-दूर से लोग आते थे। वर्षों से वाव में खममावती माताजी का मंदिर स्थापित है। यह भी श्रद्धा है कि चर्मरोग, खांसी-जुकाम, हड्डियों से संबंधित कई बीमारियाँ वाव के जल से ठीक हो जाती हैं। आज तक वाव में कभी पानी नहीं सूखा और उसमें गिरने से किसी की मृत्यु नहीं हुई। वर्ष 2006 की बाढ़ में भी माता जी की कृपा से हम सुरक्षित रहे। हमने देखा कि वाव ने बाढ़ का पानी सोख लिया।

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