
आत्म विकास और प्रेरणा का अपूर्व अवसर चातुर्मास
आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक पाद विहारी जैन श्रमण एक ही क्षेत्र में रहते है। यह जैन साधु साध्वियों की उनकी परम्परा है। उनका अपना कल्प है। आपवादिक कारणों को छोड़कर जैन साधु साध्वी चार माह के लिए निर्धारित स्थान से कहीं भी विहार नही करते है। साधु जब दीक्षित होता है। उस समय पांच महाव्रत धारण करता है। अहिसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पांच महाव्रतों में प्रथम महाव्रत अहिंसा का है। मनसा,वाचा,कर्मणा सम्रग रूप से साधु अहिंसा का परिपालन करने के लिए संकल्पबद्ध होता है। अहिंसा है तो अन्य महाव्रत भी है। श्रावण भाद्रपद का महीना वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहना। एक ही स्थान पर निवास करना। जैन आगमो में इसे वासावास गया है। वैदिक और बौद्ध परम्परा में भी इस चार मास काल को चातुर्मास कहा गया है। आज भी चातुर्मास परम्परा चल रही है। वैदिक संत महात्मा आज भी वर्षावास में चातुर्मास करते है। जैन परम्परा में आज भी चातुर्मास की परंपरा अक्षुण्ण चल रही है।
जैन श्रमणों के लिए नवकल्पी विहार बताया है। नवकल्पी विहार का विधान जैन आगमो में है। जैन समाज मे भी वाहन प्रयोग कर धर्म प्रचार के लिए जाने वाले श्रमण श्रमणी आज दो मास बिताकर चातुर्मास पूरा कर लेते है। वैदिक ग्रंथो में वशिष्ठ ऋषि का कथन है कि चातुर्मास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते है इसलिए यह चार मास का काल धर्माराधना, योग,ध्यान,धर्म श्रवण,भगवद पाठ व जप तप से बिताना चाहिए।देवता सोने का मतलब है -हमारी प्रवृतियां,हमारी क्रियाए सीमित हो जाए।सोना निवृति का सूचक है। जगना प्रवृति का सूचक है। जो प्राणी हिंसा,असत्य,चोरी,अब्रह्मचर्य कपट,क्रोध आदि प्रवृतियों में लगे है। उन लोगो का सोना ही बहुत जीवो को अभयदान मिलता है और संयमी,सदाचारी, दया परोपकार आदि प्रवृतियों में पुरुषार्थ करने वालो का जागना अच्छा है।
धर्म का मूल अहिंसा
जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा है,जीवदया है। धर्म का मूल अहिसा है।धर्म की आधारभूमि है-अहिंसा,संयम और तप। इन्ही की आराधना करने के लिए श्रवण ने गृह त्याग किया है और घर घर भिक्षा मांगने का व्रत ग्रहण किया है तो अहिंसा की आराधना, जीवो की विराधना से बचने के लिए ही चातुर्मास काल में एक स्थान पर रहने का विधान है। चातुर्मास में एक स्थान पर निवास के पीछे दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है धर्माराधना। जैन समाज मे चातुर्मास में जितनी आराधना,तपस्या होती है उतनी समूचे वर्ष में नही होती है। उत्साह हिलोरे लेता है और अपनी अपनी शक्ति के अनुसार सभी कोई उपवास,बेल,तेला, आठ मास खमण में आदि में जुट जाते है। छोटे छोटे बालक भी उपवास बेला, तेला करने को उत्सुक हो जाते है। पर्यावरण, मौसम,वातावरण का यह प्रभाव है कि गांव गांव में बड़ी तपस्या होती है।
चातुर्मास का लाभ उठाएं
साधु साध्वियों के लिए तो चातुर्मास का महत्व है ही। श्रावको के लिए भी चातुर्मास का कम महत्व नही है। श्रावको को चाहिए कि वे चार मास उपयोग अधिकाधिक जागरूकता के साथ करे। यू तो प्रत्येक व्यक्ति को क्षण क्षण जागरूक रहना चाहिए। क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है। निश्चित रूप में इस अनित्य जीवन के लिए कोई कुछ भी तो कर सकता है। मानव जीवन महत्वपूर्ण जीवन है। मानवीय व्यक्तित्व की जो महता है,वह अद्भुत है। संतो के सानिध्य का पूर्ण निष्ठा के साथ चार माह तक लाभ उठाना चाहिए। चार माह का समय काफी लंबा समय होता है।
संतो के सानिध्य में ज्ञान शिविर
कोरोना महामारी को देखते हुए गाइडलाइन का पालन करना है। प्रवचन में श्रावको को दोगज की दूरी और मास्क का उपयोग करना है। संतो के सानिध्य में धार्मिक ज्ञान शिविर एवं सेवा आदि की पुष्टि से ऐसे कार्यक्रम भी चातुर्मास अवधि में समायोजित किये जा सकते है। जिनका संघ समाज का स्थायी लाभ सिद्ध हो सके। जिन क्षेत्रों में संतो के चातुर्मास नही है,उन्हें भी चाहिए कि वे प्रतिदिन एक घन्टे का समय निकालकर अपने धर्म स्थान में जाकर सामयिक ,स्वाध्याय आदि की प्रवृति से स्वयं को जोड़ेे। चातुर्मास प्रेरणा लेकर उपस्थित हुआ है। चातुर्मास की पावन प्रेरणाओं को हम हदयंगम करके जीवन को धर्म,अध्यात्म और परमार्थ की समुचित दिशा दे सके तो सचमुच गरिमामय बात हो गई। हमे धर्म आराधना,तप,जप और उपवास के जोर पर देश की वैश्विक महामारी को भगाना है। चार महीने में जैन धर्म में की जाने वाली तपस्या कोरोना को देश से भगाने के लिए ही होनी चाहिए। चारो महीनों का योजनाबद्ध ढंग से उपयोग किया जाए। रात्रि भोजन का परिहार,नियमित रूप से सामयिक,नवकार मन्त्र का जाप, ध्यान,योग,ज्ञान -शिविर,धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय, यथा शक्ति तप,सत्कार्य में प्रतिदिन चार माह तक कुछ न कुछ दान,दुर्व्यसनों का त्याग,अभावग्रस्त जनों की सेवा ,कोरोना की वैश्विक महामारी में धन और संसाधनो की मदद आदि कई महत्वपूर्ण कार्य है जिन्हें करना चाहिए।
( कांतिलाल मांडोत)