धर्म- समाज

संस्कृति संस्कारो की फलश्रुति है

शिक्षा संस्कारो की जननी है। अच्छे संस्कारो के बीज माँ बचपन मे डालती है। उसका विकास पल्लवन और फलन शिक्षा के माध्यम से हो सकता है। आज के विद्यालय बच्चो को सभ्य तो बनाते है। पर उन्हें सुसंस्कृत नही बनाते है। सभ्यता और संस्कृति में बड़ा अंतर है।संस्कृति संस्कारो की फलश्रुति है। साफ सुथरी स्लेट पर कोई चीज बड़ी आसानी से अंकित हो जाती है। बच्चे बड़े कोमल सरल और साफ सुथरे होते है। विद्यालयों का दायित्व है कि वे इन बच्चो के ह्दय पटल पर मानवता का आलेख लिखे।

ये विद्यालय वस्तुतः मानव बनाने की फैक्टरियां है। लेकिन बच्चो से पूछे की आप विद्यालय क्यो आते है तो कहेंगे पढ़ने आते है। फिर पूछे पढ़कर क्या करेंगे तो कहेंगे,शिक्षित बनेंगे। फिर पूछे कि शिक्षित बनकर क्या करेंगे तो कहेंगे कोई जॉब ढूंढेगे। तो क्या पेट भरने की योग्यता हासिल करने के लिए बच्चे विधालय जाते है? नही विधालय तो मानव को मानव बनाने के लिए होते है। स्कूलो में गणित भूगोल पढ़ाने पर जोर है,पर धर्म और नैतिक शिक्षा के लिए कुछ नही होता है।पुस्तको का भार ढोना भर पढ़ाई है। लेकिन मानवता के संस्कार कुछ और ही है।

बचपन मे माता पिता द्वारा जो संस्कार पड़ जाते है। वे इतने अमिट स्थायी और कारगर होते है कि मृत्यु पर्यन्त व्यक्ति का साथ देते है।माता पिता द्वारा डाले गए संस्कार ही व्यक्ति को जीवन की शिक्षा देते है। बालक ध्रुव पर माता सुनीति के संस्कार का ही प्रभाव था कि ध्रुव अमर हो गया। शिवाजी को शिवाजी देशभक्त और वीर बनाने का श्रेय उनकी माता जीजाबाई को है।

माता पिता द्वारा डाले गए संस्कार कालांतर में नष्ट भी हो सकते है ।लेकिन पक्की बात यह है कि बच्चे पर संस्कार डालते समय माता पिता ने यदिउनमे धर्म का पुट दिया है ,संस्कारो को धर्म से भूषित किया है तो ऐसे संस्कार कभी नही मिटेंगे।वे जीवन पर्यंत अमिट रहेंगे।यहा तक अमिट संस्कार दूसरे जन्म में भी साथ जाएंगे।

सभी जानते है कि महात्मा गांधी इंग्लैंड गए थे।वहां के भोगी विलासी वातावरण में रहे।पर उस विषाक्त वातावरण का उन पर किंचित भी प्रभाव नही पड़ा।वे वहाँ मांस मदिरा से दूर ही रहे।कारण था माता द्वारा डाले गए धर्म और अहिंसा के संस्कार।गाँधीजी पर इन संस्कारों की छाप मरते दम तक रही।संस्कारो के क्षेत्र में प्रथम और महत्वपूर्ण भूमिका माता पिता की है।इसमें माता की सर्वाधिक है।

मनुष्य बहत्तर कलाओं में पारंगत हो जाए।विश्व का समस्त वाड्मय पढ़ डाले, लेकिन उनमें धर्म के संस्कार नही पढ़े है तो वह जलरहित बादलों की तरह है। और ये संस्कार माता पिता ही डाल सकते है। विन्रमता और निरहंकारिता संस्कारी गुण है। संस्कारो के प्रभाव को देखकर कभी कभी तो पढ़े लिखे को अशिक्षित और अनपढों को शिक्षित कहने को विवश होना पड़ता है।आज तो शिक्षक और विद्यार्थी दोनों भटक गए है। अध्यापक अपनी नॉकरी करते है और विद्यार्थी डिग्रियां लेते है। संस्कारो की चिंता किसी को नही है। जो शिक्षा संस्कारो की जननी है। वह मानो अब भ्रष्टाचार और कुसंगतियो की जननी बनती जा रही है।

( कांतिलाल मांडोत )

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