तप जीवन की महान साधना है
चातुर्मास में तप,जप और अंतर मन मे कमल समान मन खिलने का अवसर प्रदान करता है। जैन और वैदिक दोनों संस्कृति में बड़ा महत्व है। चातुर्मास में तप साधना से जीवन उत्थान के सारे मार्ग सरलता से खुल जाते है। जप और तप से पाषाण तक पिघल जाते है।करोडो जन्मों के संचित कर्म तपस्या से जीर्ण शीर्ण होकर नष्ट हो जाते है। तप जीवन की महान साधना है।तप का अनुष्ठान हजारो लाखो वर्षो से अविकल रूप से चला आ रहा है। तप के आवरण से अनेकानेक भव्य जीवो ने उद्धार किया है। चार महीने चलने वाले चातुर्मास में श्रावक, श्राविकाये और छोटे छोटे बच्चों की तप साधना देखकर बड़े भी आश्चर्यचकित हो जाते है। तप,जप और अनुष्ठान का दौर चलता रहेगा। क्या बच्चे और क्या बड़े सभी का सम्पूर्ण लक्ष्य तप आराधना का रहता है। दो,तीन,पांच,सात आठ और मास खमण की तपस्या की झड़ी लगेगी। तप साधना से दोष,दु:ख तत्काल मिट जाते है। तप की साधना आत्मा को निखारने में जितनी सहायक है,उतनी ही कठिन भी है। तप हर व्यक्ति नही कर सकता है और यह किसी के बस की बात भी नही है।
भगवान महावीर स्वामी ने 175 दिन उपवास गरम पानी पर किया था। उसके बाद श्रमण संस्कृति में मुनियों द्वारा तप आराधना की जाती है। चातुर्मास काल मे देश मे जितनी तपस्या होती है उतनी तपस्या बाकि के आठ महीने नही होती है। जिस शहर कस्बे में साधु भगवन्तों का चातुर्मास होता है। उनके सानिध्य में श्रावक तप करते है। वर्धमान स्थानकवासी सहजमुनि ने बैंगलूर चातुर्मास में 365 दिन की तपस्या की थी। यह अद्भुत चमत्कार था।सहज मुनि मसा ने दो महीने ,तीन महीने और इससे आगे की तपस्या कई बार की थी। वो जैन जगत के देदीप्यमान सितारे है जिनकी तप साधना की रोशनी में जैन समाज। उनका अनुसरण कता है। जिन का मनोबल,आत्मबल मजबूत व सुद्रढ़ होता है वही तप क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है। तप किया नही जाता जिया जाता है। तप में जीना आत्मा में जीना होता है। जो आत्मा में जीता है,विवेक में जीता है उसी का तप सार्थक व सम्यक होता है। शरीर को तपाना अलग बात है,किंतु शरीर के साथ आत्मा में रहे हुए कषायों का निर्मूलन करना तप की बहुत बड़ी उपलब्धि कही जाती है।
वैसे हमारे देश मे दो संस्कृतियां प्रमुख रही है। एक श्रमण संस्कृति और दूसरी ब्राह्मण संस्कृति।एक मुनि संस्कृति और दूसरी ऋषि संस्कृति।दोनों के बारे में इतिहासकारों ने जमकर लिखा है और प्रकाश डाला है। दोनों संस्कृतियां महान रही है,इसमें कोई संदेह नही है।श्रमण मुनि प्राय: पर्वतों पर तप करते थे और ब्राह्मण ऋषि नदी के तटों पर तप करते थे। ऋषियों का जीवन नदी की प्रवाह की तरह चला, जबकि मुनियों का जीवन उपर की तरह बढ़ता रहा है। पर्वतों पर तीर्थंकर ,ऋषभदेव, महावीर आदि ने तप किया जबकि नदी के तटों पर व्यास जैसे ऋषि पुत्रो ने तप किया था।
सभी धर्मों में तप का उल्लेख देखने को मिलता है। कोई ऐसा धर्म नही कि उनमें तप का महत्व नही दिया गया हो,फिर भी जैन धर्म मे तप अपनी अलग ही पहचान ,अलग ही विलक्षणता लिए हुए है। भगवान ऋषभदेव ने। छह मास का तप तो भगवान महावीर ने पांच मास पच्चीस दिवस का तप किया था।इन्ही के शासन काल मे धन्ना जैसे उग्र तपस्वी थे,जिनका तप इतना महान था कि उनके तप तंत्र की विधि व्याख्या भगवान महावीर के मुखारविंद से श्रवण कर मगध सम्राट श्रेणिक आश्चर्य चकित हुए बगैर नही रह सका। आगम पृष्ठों पर धन्ना के साथ अन्य कई तपस्वियों का तप स्वर्ण अक्षरो में अंकित है जो देखतें ही बनता है।
जैन दर्शन में अज्ञान तप को महत्व नही दिया है।महावीर ने कहा देह का दमन एक तप है और वह महाफल दायक है।निस तप में आत्मा की अनुभूति, कषायों की क्षीणता,मन मे सात्विकता का आभास न हो उस तप की क्या महता है?तप तो शांति प्रदाता है।जन्म मरण की परंपरा को मिटाने वाला है दिव्यास्त्र है।ऐसे तप अनुष्ठान में चातुर्मास के दौरान जिसको जितना हो सके तप करके कर्म निर्जरा का सुख सौभाग्य प्राप्त करे।
( कांतिलाल मांडोत)