
संवेदनाविहीन मानव पत्थर दिल, निष्ठुर और निर्दयी है
आज व्यक्ति मानसिक स्तर पर स्वस्थ नही है। अनेक ग्रंथियां उसके मस्तिष्क में बनी हुई है। उनका विष व्यक्ति के व्यवहार में फैलता जा रहा है। फलस्वरूप व्यक्ति स्वस्थ रचनात्मकता से दूर होता जा रहा है।हम देख रहे है समाज मे किस तरह से ख़ौफ़नाक कांड हो रहे है। व्यभिचार की तो कोई सीमा ही नही है। खुलमखुला समाज के सामने वयोवृद्ध और सम्मानित लोगो के सामने युवा वर्ग क्रीड़ा करता देख सकते है। ये सभी पश्चिमी अंधानुकरण की आड़ में समाज की मर्यादा भूल गए है। हमारा समाज किस और जा रहा है। हंमे अन्त में क्या मिलने वाला है?धर्म परिवर्तन का खेल खेला जा रहा है। यह इस देश के लिए गंभीर परिणाम लाने वाली घटना है। व्यक्ति दूर होने से उसके व्यवहार में क्रूर स्वार्थ और कठोरता फैल रही है।
जो व्यक्ति साधन सम्पन्न है वह यदि पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा को समझकर भी अनदेखा करे या किसी की पीड़ा को समझने का प्रयास ही नही करे तो वह पशु समान है। उसे अपने आप का भी ख्याल नही रहता तो वह दूसरों की परवाह क्या करेगा? ऐसा मानव इंसान न रहकर शैतान के रूप में परिवर्तित हो जाता है।उसे धार्मिक कहलाने का अधिकार नही है।आज समाज मे एक दूसरे को सहयोग करने के बजाए खींचातानी करते है। जिसमे देश और समाज का विकास नही होता है। हम देख रहे है कि राजनीति में विरोध आम बात है। सच्चे व्यक्ति की राजनीति में कसौटी होती है। विकास में अवरोध खड़ा किया जा रहा है। फरेबी और जूठे लोगो की भरमार है।
संवेदना का अर्थ है पीड़ित को जो पीड़ा हो रही है। उसी पीड़ा को हम जीवन मे अनुभव करे।मानव ह्दय को शास्त्रों में कमल कहा गया है। हाथ और पांवों को भी कमल की उपमा दी है।किंतु आज मनुष्य के हाथ पांव कमल नही रहकर पत्थर बन गए है। जहाँ एक दूसरे के लिए कोई संवेदना नही है। भाई भाई की हत्या,बेटा माता की हत्या,भाई अपनी बहन की हत्या,पति पत्नी की हत्या की समाज मे घटनाएं हम देख रहे है। ऐसे खून के रिस्तो को क्या नाम दे?जो अपने अपनो का खून बहा रहे है। पिता संवेदनहीनता से अपने मासूम का गला घोंटने जैसा दुष्टतापूर्ण कृत्य कैसे कर लेता है। वह पत्थर दिल है। व्यक्ति अपने जीवन जीने की पद्धति में ही जहरीले बीज बो दिये है,जिससे अब वह कही का नही रहा।
माता पिता पुत्र परिवार गुरु धर्म सभी रिस्ते टूटते जा रहे है।सब स्वार्थ का रिस्ता बनता जा रहा है। व्यक्ति भोगवाद की अति में पहुंच गया है। स्वार्थ ,मोह के वशीभूत होकर कोई संवेदनशील होता है,तो उसे वास्तविक संवेदना नही कहा जा सकता। जिसके पीछे अपेक्षाओं के भाव निहित है। वह तो सौदेबाजी की तरह व्यापार ही माना जायेगा। अपने समाज मे फैली कुरीतियों को खत्म करना होगा तभी समाज को सही दिशा मिल सकती है। इंसान की बात तो पीछे छोड़िए,पशु जगत में भी संवेदना विधमान है। जाति, धर्म,भाषा और प्रांतवाद के संकीर्ण नजरिये ने मानव मानव को पहचानने से भी इंकार कर दिया है। तो क्या यह मानवता पर कलंक नही है? मानव का पतन ही नही,किंतु विश्व का पतन है। यह कैसे रुके यही एक विचारणीय विषय है।
( कांतिलाल मांडोत )