
आकाश में सात नक्षत्र है लोग कहते है कि वे सात ऋषि है।एक बार एक नन्हा बालक वहा पहुंच गया। बड़ा प्यारा बालक था। मगर सप्तऋषियों की आंखे बंद होने के कारण उस बालक को किसी ने नही देखा। नन्हा बालक उस ऋषि के पास इस कदर पहुंचा जैसे वह उन्हें जानता हो। बड़े प्यार से उसने ऋषि की गर्दन में अपनी बांहे डाल दी काफी देर बाद ऋषि ने आंखे खोली और बालक को देखा। ऐसा लगा जैसे वे बालक को देखकर काफी खुश है। नन्हे बालक ने ऋषि से कहा कि मै जा रहा हूं। आपको मेरे साथ आना होगा। ऋषि बालक के प्यार भरे आग्रह को टाल न सके और साथ चलने को तैयार हो गए। ऐसा दर्शन संतप्रवर देव दानव को हुआ था।
उन्होंने बतलाया था कि यही बालक आगे चलकर विवेकानंद के नाम से चर्चित होगा। महान आत्माएं समय समय पर जन्म लेती है। वे लोगो को जीवन का मर्म बताती है।इसी कड़ी में स्वामी विवेकानंद का भी जन्म हुआ। कोलकाता जैसे बड़े महानगर में भुवनेश्वरी देवी नित्य शिवाराधना करती थी। वे भगवान शिव से प्रार्थना करती थी कि है प्रभु मेरी गोद मे एक पुत्र देने की कृपा करें।उनके एक रिश्तेदार ने विश्वेश्वर देव की आराधना करने को कहा। उन्होंने वीरेश्वर शिव की आराधना शुरू की।
अंततः शिव की कृपा हुई और जाड़े की अंतिम माह की 12 जनवरी सन 1863 ई को स्वच्छ और सुंदर बालक का जन्म हुआ। इस बालक के पिता प्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त थे।वे पारिवारिक रूप से काफी संपन थे। पिता विश्वेश्वर और माता भुवनेश्वरी ने बालक को वीरेश्वर शिव का प्रसाद मानकर इनका नाम भी वीरेश्वर रखा। परन्तु बड़ा नाम होने के कारण उनको बिले कहते थे। बिले बचपन मे नटखट और ज़िद्दी किस्म के थे। जब उनकी शरारत काफी बढ़ जाती तो माँ कहती,यदि बिले तुम यही करते रहे तो शिवजी तुम्हे कैलाश नही आने देंगे। यह सुनते ही बिले शांत हो जाता।
बिले बचपन से दयालु
बालक बिले बचपन से ही बड़े दयालु और दानी थे। कभी कोई दुखिया उनके सामने हाथ फैलाता तो वे जो भी पाते उसे दे देते। गरीबो को दान करना मानो उनका नशा था।अपने मोहल्ले में भी वे दाता विश्व नाथ के नाम से ही प्रसिद्ध थे। किसी के अर्थ संकट को देखकर वे अत्यंत व्यथीत होते थे कुछ नशाखोर उनकी दानी प्रवृति का नाजायज फायदा उठाते थे।
विद्यालय जाने से पहले ही बालक बिले ने घर पर ही रामायण और महाभारत की कहानियां कंठस्थ कर ली। सात वर्ष की उम्र में उन्हें नगरपालिका स्कूल में दाखिला मिला। बिले पढ़ने में इतने तेज थे कि उनको दोबारा नही पढ़ना पड़ता था। बिले खेलो के साथ जीवन मे सत्यव्रत का पालन करते थे। जब बिले बड़े हो गए वे नरेन्द्रनाथ कहे जाने लगे। परन्तु उनके अधिकांश मित्र उन्हें नरेन ही कहते थे। स्वामी स्वयं के प्रति श्रद्धा रखते थे।उनके मन मे अपने देश और जाति के प्रति श्रद्धा थी।साथ ही साथ वे चाहते थे कि भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक में आत्ममर्यादा की भावना प्रतिष्ठित हो। नरेंद्र को ईश्वर पर अटूट विश्वास था।
वे हमेशा सोचते थे कि ईश्वर कौन है? क्या हम ईश्वर से मिल सकते है?इसके लिए वह बहुधा ध्यान में डूबे रहते थे। वे हमेशा ऐसे गुरु की तलाश में रहते जिसने ईश्वर को देख हो। इसी ऊहापोह के बीच एक दिन उन्हें स्वामी रामकृष्ण के दर्शन हुए।उन्हें लगा कि यही हमारे सच्चे गुरु है। एक दिन उन्होंने सबकुक छोड़कर रामकृष्ण से पूछा-क्या आपने ईश्वर को देखा है? उन्होंने सहजभाव से बताया कि हां मैंने ईश्वर को देखा है और तुम्हे भी दिखा सकता हूँ। नरेंद्र को विश्वास हो गया कि सच्चा गुरु मिल गया। फिर क्या था। नरेंद्र देखते ही देखते स्वामी विवेकानंद बन गए।
स्वामीजी ने नाम बदला
सन्यास लेने के बाद साधुओं को अपना नाम बदलना पड़ता है।यही शुरू होता है स्वामीजी का आध्यात्मिक सफर।उन्होंने भारत को करीब से जानने के लिए भारत भ्रमण किया।अपनी यात्रा के अंत मे कन्याकुमारी पहुंचे।देश के लिए दुःख झेलना,देश को प्यार करना मानो मूर्तरूप में स्वामीजी के अंदर विधमान था।स्वामीजी के संसर्ग में जो भी आते उनके मन मे भी भारतप्रेम की भावनाएं हिलोरे लेने लगती।अमेरिका में खचाखच भरे हॉल में स्वामी ने विशाल जनसमूह को संबोधित किया।अमरीकी भाइयों और बहनों के संबोधन से ही तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।वे इस बात से खुश थे कि पहली बार किसी वक्ता ने उन्हें अपना माना और आत्मीयता दिखाई दी।
उन्होंने कहा कि हमारा धर्म दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म एसलिए है कि वह सभी धर्मों से प्यार करता है।इस छोटे से भाषण से स्वामी जगद प्रसिद्ध हो गए।विदेश से लौटते समय एक अंग्रेज दोस्त ने स्वामीजी से प्रश्न किया था कि पाश्चातय के विलास वैभव के बीच चार साल गुजारने के पश्चात उनकी मातृभूमि उन्हें कैसी लगी?स्वामी ने उत्तर दिया।विदेश में आने के पहले भी मैं अपनी मातृभूमि से प्यार करता था।परंतु अब तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे भारत का एक एक धूलिकण मेरे लिए पवित्र है।भारत की वायु मेरे लिए पवित्र है।भारत मेरी पुण्यभूमि है,मेरा तीर्थस्थान है।
उन्होंने भारत को शांतिशाली बनने का संदेश दिया।स्वामीजी भारतवर्ष के अतीत की महिमा की गाथा बड़े गर्व के साथ कहते थे।उनका यह विश्वास था कि भारत का भविष्य अतीत सेऔर अधिक महान होगा।भारत के विभिन्न भागों का प्रचार प्रसार किया।उनके शिष्यों ने अनेक मढ़ और संस्थाएं स्थापित की थी।उन्होंने नर नारायण की सेवा का आदेश दिया।
अमेरिका से लौटे
एक बार वे अमेरिका के विशेष आग्रह पर पुनः अमेरिका गए परन्तु वहां से लौटने के बाद वे अपने बेलूर के मठ में विश्राम के लिए चले गए और यही पर 4 जुलाई 1902 ई को महासमाधि में विलीन हो गए।परन्तु आज भी उनका दर्शन भारतीयों में जीवित है।उनके दृढ़ विचारो का उदाहरण कन्याकुमारी में स्थित उनका स्मारक है।जो सुनामी लहरों को मुह तोड़ जवाब देकर अकाट्य खड़ा है।अतः स्वामीजी के दर्शन की आज भारत को जरूरत है।तभी भारत मे न्याय और समानता आ सकती है।
( कांतिलाल मांडोत )