धर्म- समाज

आत्मा की दिवाली है संवत्सरी महापर्व

संवत्सरी पर्व जैसा अद्भुत पर्व संसार मे नही मिलेगा ।जब मनुष्य सहज भाव से अपनी भूलो पर प्रयाश्चित करता हुआ दुसरो से क्षमा मांगता है,प्रेमपूर्वक हाथ जोड़ता है और मन में भरा अपराध भाव मिटाकर प्रसन्ता से मुस्कराने लगता है। उसकी इस मुस्कान में सचमुच में एक स्वर्गीय सौंदर्य होता है । यह प्रसन्नता जीवन के कण कण को प्रभावित करती है। हिन्दू संमाज में होली मिलन और ईसाइयों में अप्रिल डे इसी प्रकार सामाजिक उत्सव है जिनमे बंधु भाव,स्नेह संवर्धन और पारस्परिक निकटता बढ़ती है। दूर दूर रहने वाले लोग परस्पर मिलकर एक दूसरे से परिचित होते है।आज की दुनिया क्षेत्रफल के हिसाब से बहुत विस्तृत है।

संवत्सरी पर्युषण पर्व का आठवां पूर्णाहुति दिवस है। सात दिन का सामूहिक कार्यक्रम हो जाने के बाद आज का दिन इस पर्वाधिराज पर्युषण का उपसंहार ही निचोड़ है। संवत्सरी का अर्थ है सबसे महत्वपूर्ण विशिष्ट दिन।संवत्सर नाम है वर्ष का। हमारे धार्मिक जगत में संवत्सरी आत्मा की दिवाली का दिन है। दिवाली की तरह इस दिन उपवास,प्रतिक्रमण ,आलोयणा,क्षमापना आदि द्वारा आत्म शुद्गी की जाती है। मन में जमा विचारों का मेल,दुर्भावों का कूड़ा कचरा हटाया जाता है। मन और आत्मा की शुद्धि करने के लिए तपस्या,, आलोचना ,प्रयाश्चित, प्रतिक्रमण आदि किया जाता है। इसी के साथ आत्म चिंतन किया जाता है। साधक एकांत में बैठकर अंतःकरण की साक्षी से अपना निरीक्षक करता है।

संवत्सरी के चार महत्वपूर्ण अंग है जो अवश्यमेव कर्तव्य है। इसलिए सबसे पहला कर्तव्य है उपवास।दूसरा प्रतिक्रमण,तीसरा अलोयणा और चौथा काम है क्षमापना। उपवास से तन की शुद्धि होती है,मन की भी शुद्धि होती है। विकारों की शांति और जिव्हा इंद्रिय का संयम करने के लिए उपवास बहुत जरूरी है। उपवास के बाद है प्रतिक्रमण,आलोयणा और क्षमापना। यो तो ये तीन कड़िया है,एक दूसरे से जुड़ी है परंतु लाभ या प्रतिफल की दृष्टि से सोचे तो इन सब का लक्ष्य है मन के विकारो की शुद्धि,भावों की पवित्रता, पापो का पक्षालन। प्रतिक्रमण और आलोयणा में मन की गांठ खुल जाती है। आप ने कोई भी बुरा काम किया है,पापाचरण किया है,किसी के साथ क्रोध या झगड़ा किया है तो तुरंत उससे क्षमायाचना कर लो,मन का क्रोध ,भावों की उग्रता तथा विचारों की कटुता को तुरंत दूर कर दो।पाप को कभी उधार मत रखो।क्योकि पाप की आग जहाँ भी रहती है अपने स्थान को जलाती रहती है । पाप की गांठे मन की शांतिधारा में रुकावट पैदा करती है। पाप का जख्म यदि जल्दी नही भरा तो नासूर बन सकता है। इसलिए उन घावों की तुरन्त मलहम पट्टी करो,तुरन्त चिकित्सा करो।

यदि एक वर्ष तक किसी पाप का प्रयाश्चित नही किया जाता है तो पाप दुगुना हो सकता है। पैर में लगे कांटो से तो एक ही जगह पीड़ा होती है परंतु पापकर्मो का ,द्वेष,क्रोध आदि कुसंस्कारों का कांटा तो शरीर और मन दोनों में ही शूल पैदा करता रहता है।इन संदर्भों को हम जीवन सुद्धि के संद्धर्भ में देखे तो यह स्पष्ट सूचना है कि जीवन मे जब भी,जहा भी कोई पाप हो गया हो तो तुरंत उस पाप की शुद्धि करो,वरना वह पाप शल्य बनकर ,कांटा बनकर आत्मा में खटकता रहेगा और केवल आत्मा में ही नही मन को भीअशान्त ,बेचैन,भयभीत,कुंठाग्रस्त रखेगा।

संवत्सरी का संदेश हंमे जगा रहा है कि वर्षभर में जब भी ,जहाँ भी ,जाने अनजाने ,एकांत में या प्रकट में आपसे कुछ भी पाप हो गया हो,किसी के साथ द्वेष विद्वेष हो गया हो,कटुता और संघर्ष की चिंगारी उठी हो,मनोमालिन्य आ गई हो तो आज बालक की तरह सरल होकर उन गांठो को खोले और पापो को स्वीकार कर लो,उन पापो की निंदा करो और उनसे छुटकारा पाने का संकल्प करो। मन की गांठ तो खतरनाक होती है।
मिच्छामि दुक्डम का भाव प्रतिक्रमण में बार बार मिच्छामि दुक्डम बोला जाता है। मिच्छामि दुक्डम शब्द केवल मुह से बोलने का नही है परंतु इस शब्द के एक एक एक उच्चारण के साथ ध्वनियों के साथ विचार करो।मिच्छामि दुक्डम के साथ हमारी स्मृतियां सजीव हो जाए।मन जागृत हो जाए। जिस वीर के हाथ में क्षमा का अमोध शस्त्र है,उसका दुर्जन कुछ बिगाड़ नही सकते। राम का बाग कभी खाली नही जाता था,वैसे भी क्षमा का तीर कभी निष्फल नही होता। रामायण से भी इसकी विलक्षणता है,राम का बाण शत्रु का नाश करता था परंतु क्षमा का बाण शत्रुता का ही नाश कर देता है।


(कांतिलाल मांडोत )

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