धर्म तो धर्म होता है,वह तर्क और वाद विवाद का विषय नही
धर्म पर चर्चाएं इस शताब्दि में हुई है,उतनीं शायद पहले कभी नही हुईं होगी। आज हर व्यक्ति यह सोचता है कि मैं ही सही हूं दूसरे सही नही है।अतः वे धर्म पर स्थिर नही है।यह दुनिया पतन की और जा रही है। क्या जमाना आ गया है? धर्म कर्म की बाते रही आजकल?पहले के जमाने मे अच्छे लोग काफी थे,अब तो बुरे लोगो की बाढ़ आ रही है।अब तो दिनों दिन पृथ्वी रसातल की और जा रही है।क्या होगा मानवता का?आज का मानव कई प्रश्न अपने मन मे खड़े करता है।
आज के विद्यार्थियों को ही देखो ,उसे किसी महापुरुष के बारे में पूछा जाय तो वह उसके जन्म, जन्म स्थान,विजय यात्रा,अंतिम यात्रा के बारे में बता देगा।अमेरिका जापान के बारे में बता देगा।लेंकिन अपने बारे में,अपने गांव के बारे में,अपने पुरखों के बारे में उसका ज्ञान शून्य ही मिलेगा। हमे दूर की बाते जल्दी आकर्षित कर लेती है।लेंकिन हमे पास की घटनाएं देखने जानने में असमर्थ रहते है। धर्म की आज यही स्थिति हो गई है। जब से मानव ने स्वयं को देखने के साथ बाहर की और देखना प्रारम्भ कर दिया है।
आसपास को देखना और विचारना शुरू किया,तभी से दर्शन और धर्म का विकास हुआ। धर्म की बाते हजारो वर्षो से की जा रही है। विभिन्न धर्मों के अनुयायी धर्म पर बहस कर रहे है। जिन्होंने अपने तर्क द्वारा दुसरो को चुप करा दिया। वे यह सोचने लगे है कि हमारा धर्म जीत गया,पर यह ठीक नही है।धर्म तो धर्म होता है। वह तर्क और वाद विवाद का विषय नही है। जहाँ हम वादविवाद में पड़ गये, वही हमने धर्म के शुद्ध रूप को छोड़ दिया और उसके स्थान पर दूसरी बाते पकड़ ली। वास्तविक धर्म जो हमारे निकट था,उसे अनदेखा जर दिया। आत्म धर्म की और हमारा ध्यान ही नही गया,बाहरी थोथी बातों पर ही जीवन का अमूल्य समय व्यतीत करते गये।
कभी कुछ विवेकशील संन्त मनीषियों ने बाहर से भीतर जाने की बात कही तो पाखंडियों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। मन तो हमारा विषयो के दल दल में फंसा हुआ है और धर्म की लंबी चौड़ी बहस में उलझ गए। इस तरह आत्मा पर मेल चढ़ाना मूर्खता के सिवाय कुछ भी नही है।
धर्म का मूल रूप भूलते जा रहे है।पानी पर काई छा जाने पर हम यह कहने लगे है कि पानी का रंग हरा होता है।तो यह हमारी दृष्टि का दोष है।धर्म की चौड़ी सड़क पर अवैध रूप से अधिकार कर कुछ लोगों ने उसे संकरी गली के रूप में बदल दिया है जिस सड़क पर ट्रक तेजी से निकल सकती थी।वही साइकिल निकलना भी दूभर हो गया है।जो धर्म जीवन का कल्याण और आत्मा को मुक्ति पथ पर अग्रसर करने में सक्षम था,आज वह जीवन को नारकीय बना रहा है तो इसमें धर्म का नही ,बल्कि उसके अनुयायियों का है। धर्म तो उच्चतम शिखर पर पहुंचाने वाला है।
हमने उसे आपसी साम्प्रदायिक झगड़ो में उलझा दिया है तो दोष किसका है धर्म का या मानव का? धर्म तो मानव?धर्म तो मानवता को उज्ज्वल बनाता है। जलते हुए दीपक को यदि धुंधली कांच की चिमनी से ढक दे तो इसमें दीपक का क्या दोष?हम दीपक को दोष दे रहे है।हमारा ध्यान चिमनी पर नही जा रहा है कि साफ करें। आज हमे धर्म के बाहर जाने की आवश्यकता नही है।हमे भीतर जाना है,धर्म का मूल जिसे छोड़ चुके है,उसे फिर थामना हमारा कर्तव्य है। यह कर्तव्य ही अपने आप मे धर्म है।
( कांतिलाल मांडोत )