
सूरत : भारतीय संस्कृति और कला के बीच प्राचीन संबंध रहा है। इन्हीं में से एक ‘चित्रकला’ है, जिसमें कागज या कपड़े पर बनाए गए चित्र जीवंत हो उठते हैं। लोककला की विरासत समान पट्टचित्र कला भी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर में अपनी विशेष पहचान रखती है। इसका उद्गम पूर्वी भारत के ओडिशा राज्य में हुआ था। इस कला को Geographical Indication (GI) टैग मिलने से इसे वैश्विक पहचान प्राप्त हुई है। इस टैग से कला की मौलिकता सुरक्षित रही है और स्थानीय कलाकारों के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।
ओडिशा के चित्रकार देवी प्रसाद ने बताया कि पट्टचित्र कला भारत की प्राचीन विरासत और आध्यात्मिक वैभव को अभिव्यक्त करती है। यह मुख्य रूप से हिंदू पौराणिक कथाओं जैसे रामचरितमानस, कृष्ण लीला की कहानियों पर आधारित होती है, जिन्हें बहुत बारीकी और मेहनत से हाथों से चित्रित किया जाता है। ताम्रपत्र पर लोहे की सलाई की तकनीक से यह कला तैयार होती है, वहीं कपड़ा, पत्ता और टसर सिल्क पर भी विशिष्ट रूप विकसित किया जाता है।
उन्होंने आगे कहा कि पेंटिंग केवल एक कला नहीं बल्कि इतिहास और भक्ति की विरासत है। यह वर्षों की साधना और कौशल का परिणाम है। एक कलाकार को इस कला में निपुणता हासिल करने में 10 से 15 वर्ष तक का समय लग सकता है। जैसे लोग जमीन-जायदाद विरासत में पाते हैं, वैसे ही हम यह कला अपने बुजुर्गों से विरासत में पाते हैं। आज भी जब मैं पेंटिंग बनाता हूं, तो ऐसा लगता है जैसे जगन्नाथ भगवान मेरे सामने विराजमान हैं। चित्रों में देवी-देवताओं और धार्मिक कथाओं को बहुत ही सूक्ष्मता और शास्त्रीय अंदाज में उकेरा जाता है।

देवी प्रसाद ने यह भी बताया कि सूरत का सरस मेला कला बिक्री के साथ-साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मंच बन रहा है। गुजराती लोगों का प्यार और हस्तकला के प्रति समझ देखकर उन्हें बेहद खुशी हुई। आधुनिक युग में भी लोग हैंडमेड वस्तुओं को अपना रहे हैं, जो उनके जैसे कलाकारों की आजीविका का स्रोत बनती है।
उन्होंने कहा कि सरस मेले जैसे आयोजन हमारी कला को मंच प्रदान करते हैं। सरकार द्वारा मिले ऐसे प्लेटफॉर्म से ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकारों को भी अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर मिल रहा है। विभिन्न हस्तकला मेलों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से अब यह कला वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय हो रही है।
पट्टचित्र कला का इतिहास
‘पट’ का अर्थ है कपड़ा और ‘चित्र’ का अर्थ है चित्रित दृश्य। ओडिशा की यह कला लगभग एक हज़ार वर्ष पुरानी मानी जाती है। इसमें जगन्नाथ भगवान, कृष्ण लीला, रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं को चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। ये चित्र पारंपरिक रूप से मंदिरों की दीवारों को सजाने के लिए बनाए जाते थे। इसकी विशिष्ट शैली, प्राकृतिक रंगों का उपयोग और अभिव्यक्तिपूर्ण चित्रण इसे अद्वितीय बनाता है। प्रत्येक पेंटिंग के पीछे एक कहानी होती है, जो संस्कृति को जीवंत बनाती है।
पहले इन चित्रों को कागज़, ताड़पत्र और कपड़े पर हाथ से बनाया जाता था, जिन्हें मंदिरों में दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु निहारते थे। आज यही चित्र घरों की शोभा भी बढ़ा रहे हैं।



