धर्म- समाज

खेत मे बिखरे अनाज के कण मानव की क्षुधा शांत नही कर सकते

जीवनरूपी वृक्ष को पल्लवित करने के लिए संस्कार बीज है। खेत मे उत्तपन्न कपास मानव की लज्जा ढकने में समर्थ नही होती। खेत मे बिखरे अनाज के कण मानव की क्षुधा शांत नही कर सकते। कपास और अन्न के दानों को संस्कारित करना होगा। सुपाच्य बनाना होगा। संस्कारित हुए बिना अन्न के कणों को खा जाने पर वैध या डॉक्टर की शरण मे जाना पड़ता है। बालक को जन्म देने मात्र से अभिभावकों के कर्तव्य की इतिश्री हो सकती है? नही, उनके जीवन को संस्कारित बनाने का उत्तरदायित्व भी हम पर ही है। उदारता,वीरत्व ,विनमता आदि के गुण माता के दूध के साथ शैशव में ही मिलते रहना चाहिए। उत्तम संस्कार जीवन का शुक्ल पक्ष है। विचार,आचार, व्यवहार आदि की निर्मलता एवं शालीनता के उत्तम संस्कार नितांत अपेक्षित है।

संस्कार का जरा भी तिरस्कार न करे। यदि संस्कार सुसंस्कार है तो उनके परिणाम में आत्मा को पीड़ां झेलनी पड़ेगी। जिनके सु संस्कार प्रबल होते है ,वह कु संस्कारी वातावरण में भी अपना संतुलन नही खोता। माता पिता द्वारा सुसंस्कार मिलने के कारण ही राक्षसो के कुसंस्कारों में रहकर भी प्रह्लाद भक्तों में शिरोमणि बने रहे। इसके विपरीत जिसके कुसंस्कार प्रबल है वह अच्छे संस्कार में भी दूषण फैलाता है। अतः प्रयास सदैव रहे कि शुभ संस्कार प्रबलतम हो। जब तक जीवन चक्र गतिमान रहे, हमेशा उत्तमोत्तम स्थिति की और अग्रसर होने का पवित्र प्रयास होना चाहिए। प्रबल आत्मबल वाले व्यक्ति संस्कारो में परिष्कार तथा संशोधन, यहा तक कि परिवर्तन भी कर लेते है। भयंकर झंझावातों में न बुझने वाले दीप वही हो सकते है जिन्हें पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हो।

सद संस्कारो से ही संस्कृति का निर्धारण एवं निर्माण होता है। सत संस्कारो को ही यदि उपेक्षित कर दिया गया तो हमारे पास फिर शेष रहेगा ही क्या? यह कटु सत्य है किआज सद सद संस्कारों की खुलकर अपेक्षा हो रही है।हम अपने अतीत के उन्नत जीवन और गौरवपूर्ण जीवनादर्शों को त्यागकर भोगवादी जीवन शैली की और बढ़ रहे है। हमारी संवेदनशीलता, दया, करुणा, परदुःखकातरता, विनमता, प्रमाणिकता सुषुप्त होती जा रही है। व्यक्तिवाद और स्वार्थ साधना ही जीवन का धेय्य बनता जा रहा है। हमे अपनीं राष्ट्रीय सामाजिक नैतिक अस्मिता की रक्षा के शाश्वत जीवन मूल्यों का अभिरक्षण करना ही होगा। दुसरो के पाथेय का संबल लेकर हम सभ्यता के महान शिखर पर कभी नही चढ़ सकते।

पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करके, अपनी संस्कृति को नकार के, अपने मूल आदर्शों और व्यवहार से भटककर, भोगवादी जीवन शैली की और बढ़कर कोई कितना ही इठला ले पर याद रखिये, इसकी परिणति केवल महाविदनाश के अतिरिक्त कुछ भी नही है। हमे अपनी संस्कृति और अपने आदर्शों को भूलने भुलाने की भूल नही करनी चाहिए। कही भी कोई श्रेष्ठता है और उसे हम नही अपनाएं। हमारे जीवन मे आधुनिकता या तथाकथित प्रगतिवाद के नाम पर किसी का अंधानुकरण करके विकृतियों का प्रवेश नही होना चाहिए। पाश्चात्य संस्कृति के प्रति आस्था और हमारी अपनी संस्कृति के प्रति लज्जा या उपेक्षा स्पष्ट रूप से भ्रमित होने का संकेत है।इससे ज्यादा अफसोस की क्या बात हो सकती है कि हम अपनी संस्कृति को भूल रहे है। दूसरी और पाश्चात्य सभ्यता में जीने वाले लोग वही से ऊबकर हमारी संस्कृति का अनुसरण कर रहे है।अब भी हम सावधान और सचेष्ट नही हो पाए तो संताप के अतिरिक्त कुछ भी नही पा सकेंगे।

आप बच्चों को दोष देते है। पर विचारे बच्चों को दोष देने की आवश्यकता नही है।बच्चों के जीवन मे वही तो उभरकर आएगा,जो आप करेंगे। मोबाइल,इंटरनेट और भोगवाद का अनुसरण समाज मे हो रहा है। उसका प्रभाव नवकल्पित जीवन पर पड़ रहा है। हमे जागरुकता पूर्वक विकृतियों के प्रतिकार एवं उत्तम संस्कारो के प्रचार प्रसार व स्वीकार के लिए अपने आपको भीतर के तेजस्वी संकल्पों के साथ तैयार करना है। विकृतियां जितनी भी है, वह हमारे अज्ञान और अविवेक के द्वारा ही खड़ी कीगई है तो इसका प्रतिकार भी हंमें ही करना है।

सचमुच सांस्कारिक पतन के जिम्मेदार हम स्वयं ही है। हमे यह नही विस्मृत करना चाहिए कि नारीत्व का आदर्श सीता माता,सावित्री,दमयंती और मदालसा है।कोई प्रियंका चोपड़ा या कैटरीना कैफ नही है।हमारे आदर्श पुरुष राम,कृष्ण और महावीर है।कोई धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन या अजय देवगन नही है।हमें स्मरण रहे कि हमारा जीवन, धन, संपति, मनोरंजन और विषय वासनाओं की पूर्ति मात्र के लिए नही है। ज्ञान साधना और आत्म कल्याण के लिए है।

समाज की महत्वपूर्ण इकाई है, परिवार और परिवार का महत्वपूर्ण घटक है, बालक संस्कारवान हो, आज इस बात की महती आवश्यकता है। बालक अक्सर वो ही करता है जो घर में,पड़ोस में या आसपास में किया जाता है। बालक के जीवन को सु संस्काररित बनाने की दृष्टि से माता का महत्व विशेष है। यदि माता चाहे तो अपने बालक को भामाशाह बना सकती है और चाहे तो मम्मन सेठ बनाकर विश्व मे कलंकित भी बना सकती है। बालक के जीवन मे एक सुशिक्षित माता जो प्रभाव डाल सकती है, वहाँ सो शिक्षक का अथक प्रयास भी असफल रहेगा। महावीर को जन्म देने का सौभाग्य त्रिशला जैसी माता और सिद्धार्थ जैसे पिता को ही मिलता है।

( कांतिलाल मांडोत)

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