धर्म- समाज

वैदिक और जैन दोनों ही परम्पराओ में धर्माराधना का काल चातुर्मास

आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है। जैन संस्कृति में यह दिन बहुत महत्वपूर्ण है।आषाढ़ पूनम की रात्रि के पश्चात जैन श्रमण चार मास तक ही ग्राम नगर में स्थिरवास करते है। भ्रमणशील जीवन में यह स्थिरता का सूचक है। आज चातुर्मास का मंगल प्रवेश होने जा रहा है इसलिए आज का दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है।आषाढ़ की पूनम से कार्तिक पूनम तक जैन श्रमण एक ही क्षेत्र में रहते है। यह जैन साधुओं की अपनी परम्परा है। उनका अपना कल्प है। आपवादिक कारणों को छोड़ कर कोई भी साधु साध्वी चार माह के लिए निर्धारित स्थान से कही भी विहार नही करते है।

लोगो द्वारा कई बार प्रश्न पूछा जाता है कि साधु साध्वियों को चार माह तक एक ही क्षेत्र में अवस्थिति का क्या औचित्य है? संन्त और सरिता को तो सतत गतिशील रहना चाहिए। इनकी गति से व्यापक लाभ की संभावना रहती है। यह ठीक है कि साधु के सानिध्य में लोक मंगल पुष्ट होता है और साधु सतत विचरनशील रहता है तो प्रचुर रूप से लोकोपकार संपन्न होते है,पर साधु का जीवन एकांत रूप से लोकहित के लिए नही है।लोकहित के पहले आत्महित भी तो है।जो आत्महित को सम्यक प्रकार से संपादित कर देता है,वही परहित कर सकता है।

साधु जब दीक्षित होता है। उस समय पांच महाव्रतो को स्वीकार करता है। अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पांच महाव्रतों में प्रथम महाव्रत अंहिसा का है। मनसा वाचा कर्मणा जीवन पर्यंत के लिए सम्रग रूप से साधु अहिंसा का परिपालन करने के लिए संकल्पबद्ध होता है। अहिंसा है तो अन्य महाव्रत भी है। अहिंसा के अभाव में अन्य महाव्रतो का पालन कठिन है। अहिंसा मूल है। चातुर्मास काल एक ऐसा काल है ,जिसमे वर्षा के कारण चारो और हरियाली छा जाती है एवं छोटे बड़े त्रस्त और स्थावर जीवो की प्रचुर रूप से इतनी उत्तपत्ति हो जाती है कि संन्त के द्वारा गमनागमन की प्रक्रिया में बहुत अधिक सावधानी रखने के बावजूद भी जीवो की हिंसा की संभावना रहती है।ऐसी स्थिति में साधु एक स्थान विशेष में ठहर कर आत्म साधना करता है।

संतो का साधन

चार मास संतो का सानिध्य का पूर्ण निष्ठा के साथ लाभ हर व्यक्ति को उठाना चाहिए। चार माह काफी लंबा समय होता है। तत्वज्ञान प्राप्त करके जीवन मे क्रियाओं के पक्ष को काफी लंबा बनाया जा सकता है। संतो के सानिध्य में धार्मिक ज्ञान शिविर एवं सेवा आदि की पुष्टि से ऐसे कार्यक्रम भी चातुर्मास अवधि में समायोजित किए जा सकते है। जिनका संघ समाज के लिए स्थायी लाभ सिद्ध हो सके।जिन संतो के चातुर्मास नही है,उन्हें भी चाहिए कि वे प्रतिदिन एक घन्टे का समय निकालकर अपने धर्म स्थल में जाकर सामायिक स्वाध्याय आदि की प्रवृति से स्वंय को जोड़े।

चातुर्मास की विश्रुत परम्परा

वैदिक और बौद्घ परम्परा में भी इस चार मास् को चातुर्मास कहा जाता है।इस चातुर्मास के लिए परिव्राजक,ऋषि ,श्रमण निर्ग्रन्थ एक स्थान पर निवास करते है। आज भी यह चातुर्मास परम्परा चल रही है। वैदिक संन्त महात्मा आज भी वर्षाकाल में चातुर्मास करते है। भले ही वे चार महीने के बजाय दो महीने ही एक स्थान पर रहते है। जनता की धर्म आराधना भागवत श्रवण रामायण पाठ व्रत उपवास आदि की प्रेरणा देते है। बौद्ध भिक्षुओं में भी किसी समय् चातुर्मास के चार मास एक स्थान पर ठहरने की परंपरा थी पर अब वे दो मास में ही चातुर्मास समाप्त करते है।

चातुर्मास अंतर जागरण का संदेश

वैदिक ग्रंथो में वशिष्ट ऋषि का एक कथन है कि चातुर्मास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते है इसलिए यह चार मास का काल धर्माराधना योग ध्यान धर्मश्रवण भागवत पाठ व जप तप में बिताना चाहिए। यात्रा नही करनी चाहिए। यह चार महीने देवता शयन करते रहते है। कहा जाता है कि रावण का भाई कुंभकर्ण छह महीने सोता था। उसे जगाने के लिए कान के पास नंगाडा पीटा जाता था। आज कल के नेता तो बारह महीने ही सोते है। जागते है केवल चुनाव के दिनों में। अस्तु चार मास देवता सोने का मतलब चार मास धर्माराधना और योगसाधना में ही बिताना चाहिए। भगवान महावीर चार महीने के लिए एक निर्जन स्थान पर जाकर तप धारण कर ध्यानलीन हो जाते थे अर्थात बाहरी दृष्टि से सो जाते थे इंद्रियां सो जाती थी मन जागता था। अंतर्मुखी जागृति में रहते थे।

धर्म आराधना में आवश्यक बाते

धर्म या व्रत की आराधना में सबसे पहली बात श्रद्धा है।धर्म के प्रति गुरु के प्रति या गुरुजनॉ द्वारा बनाए गए व्रत नियम आधार धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा भक्ति होनी चाहिए।यह विश्वास होना चाहिए व्रत आराधना का धर्म साधना का मार्ग सच्चा है।आत्मा को सुख पहुंचाने वाला है।दुःख दूर करने वाला है।


( कांतिलाल मांडोत )

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button