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ज्ञान और वैराग्य का पर्व वसन्त पंचमी

धर्म मानव की आंतरिक चेतना की उपज है। आतंरिक चेतना से ही उसका सीधा संबंध है। धर्म से ही मन मे विराटता और भावो में पवित्रता की प्राणधारा संचरित होती है। संस्कृति एक प्रवाह है,जो निरन्तर गतिशील भी है।परिवर्तनशील भी है। पतझड़ के बाद वसन्त ऋतु का आगमन नव निर्माण का प्रतीक है। विनाश के बाद नये विकास की सूचना लेकर वसन्त ऋतु आती है। जर्जर ,मृतप्रायः प्राकृतिक वनस्पतियों में नव जीवन अंगड़ाई लेने लगता है। सूखे वृक्षो पर नई नई कोपले लगती है।मुर्झायें पौधों पर जैसे जीवन खेलने लगता है। सर्वत्र उल्लास उमड़ रहा है।

इस अलौकिक शोभा के कारण ही वसन्त ऋतुओ से श्रेष्ठ और ऋतुराज कहा जाता है। कर्मयोगी कृष्ण कहते है ।मैं ऋतुओं में कुसुमाकर अर्थात वसन्त हूँ। जैसे यज्ञों में जप तप सर्वश्रेष्ट है। उसी प्रकार ऋतुओं में वसन्त ऋतु सबसे उत्तम है। ऋतु चक्र के अनुसार चैत्र वैशाख ये दो महीने वसन्त ऋतु के है। परंतु वसन्त पंचमी चैत्र के चालीस दिन पहले आ जाती है। वसन्त पंचमी ऋतु परिवर्तन का पर्व है।

विधा या सरस्वती का अवतरण दिवस

प्राकृतिक जीवन मे नव उत्साह और नई उमंग के संचार का त्योहार है। किन्तु भारत मे प्राचीन ऋषियों और मनीषियों ने इस पर्व को विधा की देवी सरस्वती के साथ जोड़ दिया है।और वैदिक पुराणों की कथा के अनुसार आज के दिन विधा देवता सरस्वती का धरा पर अवतरण हुआ था। अर्थात आदिमानव ने आज के दिन अक्षर ज्ञान का अभ्यास करने का प्रारंभ कर दिया था।मनुष्य ने वर्णमाला और लिपिविधा का ज्ञान सीखना आज के दिन प्रारम्भ किया था। इसलिए वसन्त पंचमी को विधा देवता के अवतरण का दिन माना गया है।

सरस्वती के पुत्र बनकर उसकी पूजा करने से सरस्वती प्रसन्न होकर जीवन मे ज्ञान का,विवेक का,सद्बुद्धि का प्रकाश देगी और यही प्रकाश हमारे जीवन को आनन्दमय बनाएगा। खुशियों से भर देगा। सफलताओ से अपना जीवन लहलहाता रहेगा। वसन्त पंचमी विधा पूजा का दिन है। ज्ञान पंचमी भी ज्ञान पूजा का दिन है। इन दिनों में स्वयं ज्ञानार्जन के लिए प्रयत्नशील बना जाता है। साथ ही ज्ञानियों की पूजा,सम्मान,अभिनन्दन किया जाता है।भारतीय संस्कृति में विद्वानों का सम्मान सदा सदा से रहा है।

वसन्त पंचमी काम पूजा नही,काम विजय का पर्व है

प्राचीनकाल में भारत के गुरुकुलों में हजारो विद्यार्थी गुरुओं के चरणों मे बैठकर विद्याध्ययन किया करते थे और अपने जीवन को स्वयं सत्य ,शिव और सुंदरम से जोड़ते थे। सबसे पहले सत्य का ज्ञान प्राप्त करते थे। फिर शिवम कल्याण का मार्ग पहचानते थे। उसके बाद सौंदर्य कला कौशल सीखते थे। परंतु जब भारत मे वाम मार्ग का प्रभाव बढ़ा तो सत्यं शिवम के स्थान पर केवल सुंदर को महत्व दिया जाने लगा और लोग सरस्वती पूजा छोड़कर कामदेव की पूजा करने लगे। वसन्त पंचमी के पवित्र पर्व पर सरस्वती पूजा के स्थान पर मदन महोत्सव मनाया जाने लगा।

इसी कारण भारत मे ज्ञान विज्ञान का हास हुआ और आचार विचार में गिरावट आई। चरित्र का पतन हुआ।भारत के गुरुकुलों में जहा अन्य देशों से सैकड़ो हजारो छात्र पढ़ने के लिए आते थे,ज्ञान प्राप्त करने आते थे।आज भारत के छात्र ज्ञान प्राप्त करने विदेशो में जा रहे है। ज्ञान का,विधा का यह हास् पतन क्यो हुआ? इसका कारण है सरस्वती के स्थान पर काम को महत्व दिया जाने लगा। सत्य के स्थान पर केवल सुंदरम की पूजा होने लगी।

यह सही है कि वसन्त ऋतु प्रफुल्लता की ऋतु है। प्रकृति की सुषमा अपने पूर्ण विकास में निखरती है। रंग बिरंगे फूल खिलते है। न अधिक सर्दी,न अधिक गर्मी यह सब बातें मनुष्य के मन में भावनात्मक परिवर्तन करती है। उसकी कोमल भावना और उमंगों को सहलाती है और इस कारण काम की जागृति भी हो सकती है। इसी कारण फूलो को कामदेव का शर धनुष कहा गया है। शरीर सौंदर्य की पूजा करने वालो ने वसन्त पूजा को काम पूजा के रूप में परिवर्तित कर दिया है और वसन्त पंचमी के दिन मदन महोत्सव मनाया जाने लगा। हंसी,मजाक,उन्मुक्त आचरण, प्रेमालाप, प्रणय प्रसंग यह सब क्रियाएं वसन्त पंचमी के उपलक्ष्य में होने लगी। ज्ञान के उच्च मार्ग पर बढ़ने वाला मानव पथभ्रष्ट होकर चारित्रिक पतन की और धकियाने लगा।

कुत्सित धारणा

वसन्त पंचमी के साथ साथ काम पूजा का संबंध वास्तव में वाम मार्ग की कुत्सित धारणा का चिन्ह है। वास्तव में तो यह पर्व शिवशंकर की काम विजय का पर्व है। पहले ज्ञान पूजा करो,ज्ञान प्राप्त करो,फिर ज्ञान के द्वारा वैराग्य अर्थात वीतराग भाव की प्राप्ति करो। इस प्रकार वसन्त पंचमी भारतीय संस्कृति का अध्यात्मोन्मुखी पर्व है और भगवान महावीर के इस संदेश को चरितार्थ करती है। अज्ञान और मोह का नाश होने पर संपूर्ण ज्ञान का आलोक प्राप्त होता है और ज्ञान द्वारा मनुष्य पर विजय प्राप्त कर वीतराग बनता है। वसन्त पंचमी का यही संदेश सबके लिए है।

( कांतिलाल मांडोत )

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