धर्म- समाज

हर हर महादेव : शिवरात्रि को त्रिपुरारी होते है डमरूवाले बाबा

भगवान शंकर परम् कल्याणकारी देव माने जाते है।लघु से लघुतम पूजन से भी वे अत्यंत प्रसन्न होते है। शास्त्रो मे उनकी पूजन की जितनी अधिक विधियां पाई जाती है उतनी और किसी देवता की नही है। क्योंकि वे देवाधिदेव है। स्वस्वरूप है। भगवान शंकर के पूजन का विशेष पर्व महाशिवरात्रि, श्रावणी पर्व तथा मास शिवरात्रि को माना गया है। हमारे यहां सभी देवताओं का भजन-पूजन दिन में होता है परंतु भगवान शंकर की पूजा रात्रि में होती है।

शिव को रात्रि क्यो प्रिय है?

भगवान तमोगुणी और संहारशक्ति का अधिष्ठाता है इस कारण तमोमयी रात्रि में प्रेम होना स्वाभाविक है। रात्रि संहार काल का प्रतीक है। रात्रि का आगमन होते ही प्रकाश का संहार हो होता है। सृष्टि की संपूर्ण चेतना मिटने लगती है। ऐसी दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना स्वाभाविक और महज है। इसी कारण शिव की आराधना सदैव न केवल रात्रि में वरन प्रदोष यानि प्रारम्भ होने पर ही होती है।

मृत्यु से कौन भाग सकता है?

मृत्यु ही जीवन का सत्य है।जीवन तो पानी के बुलबुले की तरह है। जीवन को सबने देखा कहा है? जीवन भोगिता है।मृत्यु उस भोग का प्रसाद है। भगवान शंकर के साकार और निराकार दोनों स्वरुपों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि जीवन और मृत्यु का अंतर पता चल जाएगा। सावन में वे जगत के लिए विवाह रचाते है। उनके पुत्र कार्तिकेय उस तारकासुर का अंत करते है। जिसने ब्रह्मा जी से वरदान लिया था कि मैं मरू तो केवल शंकरजी के शुक्र से उतपन्न संतान के हाथों। चालाक था तारकासुर? उसने सोचा कि न शंकरजी विवाह रचाएंगे और न उनको कोई पुत्र होगा।अर्थात उसकी मौत कभी आएगी ही नही। उसको क्या पता था कि जगत को रचने वाले ने हर जीवात्मा को जीवन देने के साथ ही उसकी आयु भी तय कर दी है।

सावन में मदमस्त भोले भंडारी फाल्गुन आते आते तयम्बकम्ब हो जाते है। त्रिपुरारी, प्रलय और काल के देवता
शंकरजी अनुशासन और शासन के प्रतीक है। अनुशासन और शासन की शर्तें होती है। प्रकृति का संतुलन इसी में है।
शिवरात्रि भगवान के वंदन,अर्चन, पूजन,नमन और आराधना की रात है। महादेव के अभिषेक की रात है। शिव के शुभ तत्व की रात है।

भगवान त्रिशूल धारण करते है जो इस बात का प्रतीक है कि जिसने सत,रज और तम गुणों को जीत लिया है वही शिव है। दूसरे अर्थों में दैहिक दैविक और भौतिक तापो से मुक्ति शिव का त्रिशूल ही दिला सकता है। भगवान शंकर के गले मे पड़ी सर्पो की माला उनकी कुंडलिनी शक्ति का धोतक है। भगवान शिव का एक वाहन है। यह नन्दी आध्यात्मिक जगत में नदी पशुत्व का प्रतीक है और पशुता पर विजय पाना शिवत्व है। अर्थात जिसने अपने भीतर को पशु प्रवृति पर विजय पा ली है समझीये वही शिव सदश्य हो गया है।

बैल चार पैरों से चलता है यह चार पैर मानव जीवन के चार पुरुषार्थ है। जिन्हें हम धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष के नाम से जानते है। समाधि मुद्रा के भगवान बांधबर के आसन पर बैठे दिखते है जो कि ज्ञान का प्रतीक है। शिव के पंचावतार रूप में उसकी प्रतिमा में पांच मुखों के दर्शन होते है। ये पांच मुख अघोर,ईशान, तत्पुरुष, वर्णदेव और सधोजात या वृद्ध रुद्र के है। अघोर का अर्थ है वैरागी होना,अघोर का अर्थ है त्यागी होना। भगवान शंकर उसी त्याग की साक्षात मूर्ति है।उन्हें माया विचलित नही कर सकती है।

भगवान का ईशान स्वरूप लिंग रूप में सर्वत्र विधमान है।तत्पुरुष के रूप में भगवान शिव एक ध्यानयोगी नजर आते है।इसके अलावा हमारे अपने सबके भीतर जो एक अन्तरशक्ति है। वही अन्तरशिवा है जिसे वर्ण देव कहा जाता है और उसके बाद शिव के अन्तर्विलय का स्वरूप सधोजात अथवा वृद्ध रुद्र है। नटराज रूप में शिव सृजन व विध्वंस की अधिष्ठात्री शक्ति बनकर उभरते है।शिव का नटराज स्वरूप मृत्यु, जन्म और पुनर्जन्म की लयबद्धता को दर्शाता है।उठा हुआ एक पैर और उसके ऊपर वर मुद्रा में नृत्य करते शिव ह्दय में धारण करने योग्य छवि बनाते है।एक पैर से वे अपसमर पुरुष का सिर दबाए हुए है।

अपस्मार का अर्थ किसकी स्मृति चली गई हो। दूसरी तरफ शिव विस्मृत मति को अपने पैरों से सुधारने में सक्षम है।नटराज रूप में चारो तरफ उठती आग की लपटें अंतिम विनाश का सूचक है।शक्ति और शिव एक है।हर शिव रात्रि का यही संदेश है कि शक्ति के बिना शिवत्व नही मिलता है।शिवरात्रि का यह पर्व इसी शक्ति साधक की पूजा का पर्व है।

( कांतिलाल मांडोत )

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button