कष्ट में समता का अनुभव करना धर्म है : आचार्य जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी
आत्मा का असली स्वरूप को भाव लोच प्रकट करता है
सूरत। शहर के पाल में श्री कुशल कांति खरतरगच्छ जैन श्री संघ पाल स्थित श्री कुशल कांति खरतरगच्छ भवन में युग दिवाकर खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म. सा. ने गुरूवार 29 अगस्त को प्रवचन में कहा कि हम कितने अधूरे है लेकिन हम खुद को पूर्ण समझने की भूल करते है। अपूर्णता का बोध व्यक्ति को पूर्णता की बोध की लालसा पैदा करने में आधार बनता है। बीमार व्यक्ति डॉक्टर के पास तभी जाएगा जब वह मानेंगा कि वह बीमार है। हम अधूरे है पूर्ण होने का प्रयास, पुरूषार्थ करना है। पुरूषार्थ का नाम ही साधना है।
दर्पण व्यक्ति को बनावटीपन सीखाता है। सुंदरता पलभर की होती है शरीर स्वयं असुंदर है। शरीर न उपर से नहीं भीतर से सुंदर है। उपर जीतना सुंदर दिखायी देता है उतनी ही अंदर गंदगी भरी हुई है। सुंदरता और असुंदरता यह मन की एक कल्पना है। लोच दो प्रकार का होता है भाव लोच कर्मो का होता है। आत्मा का असली स्वरूप को भाव लोच प्रकट करता है।
आचार्यश्री ने कष्ट के बारे में कहा कि तन को दु:ख हो वह कष्ट या मन को दु:ख हो वह कष्ट। जो दु:ख प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया जाए वह कष्ट नहीं है। जो दु:ख पीड़ा के साथ स्वीकार किया जाता है वह कष्ट है। जो दु:ख में भी सुखी रहे वह साधु और जो सुख में भी दु:खी रहे वह संस्कारी। कष्ट सहन करना धर्म नहीं है, कष्ट में समता का अनुभव करना धर्म है।