जैन-वैदिक दोनों परम्पराओ में गुरु महिला सर्वोपरि है
आज आषाढ़ी पूनम है। हिन्दू संस्कृति जिसे वैदिक संस्कृति के नाम से जानते है, वह भारतीय संस्कृति की एक मुख्यधारा है। श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व जैन संस्कृति करती है तो हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व वैदिक संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति करती है। वैदिक संस्कृति के अनुसार आज का दिन गुरु पूर्णिमा का दिन है। आज गुरुजनों की पूजा,वंदना और उपासना करने का बहुत बड़ा दिन है। ज्ञानदाता गुरुओ का सम्मान करना है। क्योंकि इस तिथि को व्यास पूर्णिमा भी कहते है। सुमेरु भी कण को वंदना करता है,समुद्र भी बूंद को प्रणाम करता है। सूर्य भी किरणों की वंदना करता है। क्योंकि गुरु हमारा उपकारी है। कबीर कहते है-
गुरु गोविंद दोऊ खड़ेकाके लागू पाय,बलिहारी गुरुदेव की,गोविंद दियो बताय ।।
कबीर स्वयं से ही प्रश्न करते है कि मेरे सामने गुरु और गोविंद खड़े है। मेरे लिए दोनों ही वन्दनीय है और प्रणम्य है,पर मैं सबसे पहले किसके चरण स्पर्श करू, गुरु के या भगवान के? दूसरी पंक्ति में स्वयं ही सटीक उतर देते है कि पहले मैं गुरु पर न्यौछावर हूं, क्योकि गुरु कृपा के बिना भगवान नही मिलते। जैन वैदिक दोनों परम्पराओ में गुरु महिला सर्वोपरि है। वैदिक परंपरा में तो ब्रह्मा,विष्णु महेश तीनों का स्वरूप एक गुरु में ही समाहित है, यहाँ तक की परम ब्रह्मा ही गुरु ही है। गुरु ग्रंथ साहिब में भी कहा गया है-गुरु मेरी पूजा,गुरु गोविंदु, गुरुमेरा पारब्रह्म गुरु भगवन्तु।कोई शिष्य ब्रह्मा और शिव के संमान ज्ञानी क्यो नही हो,गुरु के बिना वह भी संसार सागर से पार नही कर सकता। गुरु बिनु भवनिधि तरह न कोई।जा बिरंचि संकर सम होई। भारतीय संस्कृति त्रिकमयी है।वैदिक परंपरा में ब्रह्मा विष्णु महेश त्रिदेव है तो जैन संस्कृति में गुरु देव धर्म के मध्य में रहने वाले गुरु ही तीर्थंकर देव तथा सद्धर्म का बोध कराते है।
नीतिकारों ने गुरु को व्यवहारिक दृष्टि से कुम्हार,माली और शिल्पकार की उपमा दी है। कुम्हार मिट्टी के लोंदे को एक सुंदर घड़े का आकार प्रदान कर उसे इतना महत्वपूर्ण बना देता है कि वह कुल वधुओ के सिर पर शोभायमान होता है। छोटे बड़े अमीर गरीब सबके लिए उपयोगी हो जाता है। माली नन्हे नन्हे बीजो को खादपानी देकर अंकुरित करता है,पौधे बनने पर उनकी कटिंग सेटिंग करता है, इसका सरंक्षण करता है और फूलों को चुन चुन कर हार बनाता है। जो हार देवताओं के गले मे पहराया जाता है। शिल्पकार अनगढ़ पत्थर को तराश कर सुंदर, कलापूर्ण और भव्यमूर्ति का आकार देता है। रास्ते मे पड़ा ठोकरे खाने वाला पत्थर जन जन का वन्दनीय भगवान बन जाता है। गुरु की भूमिका इससे भी अधिक है। वे पशु तुल्य मानव को हजारो लाखो मनुष्यों का पूज्य बना देते है।
गुरु एक दर्पण है
जिस प्रकार मनुष्य अपना रंग रूप निहारने के लिए दर्पण देखता है,दर्पण उसकी सुंदरता और कुरूपता का बोध कराता है,उसी प्रकार गुरु भी शिष्य को उसके अस्तित्व का बोध कराते है और उसे उसके भीतरी स्वरूप का दर्शन कराते है। शिष्य के शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक विकास का प्रशिक्षण गुरुओ से मिलता है। गुरु शिष्य को संसार में जीने की ऐसी ट्रेनिंग देते है कि वह आपत्ति विपत्तियों में भी हंसता मुस्कराता जीता है। गुरु संसार का रहष्य जानता है,जिसे जानकर जीवन मे जाग्रति और शक्ति का संचार किया जा सके। जो ज्ञान शास्त्रों में नही मिलता ,वह ज्ञान साधना से,अनुभव से मिलता है। गुरु शास्त्रों का ज्ञाता तो होता ही है,पर उसने साधना करके जो ज्ञान प्राप्त किया है,उसका अलग ही महत्व होता है। जीवन की उलझी समस्याओ को सुलझाना ,साधना के विघ्नों का निराकरण करना गुरु ही जानता है।
गुरु पूजा
प्राचीन काल मे गुरु शिष्य का संबंध अत्यंत आदर व प्रेम का संबंध होता था। गुरु शिष्य को ज्ञान देता था तो शिष्य भी गुरु के लिए अपना सबकुछ समर्पित कर देता था। गुरु की बात मानना ही वस्तुत: गुरु पूजा का अर्थ है। औपचारिक रूप से हम आज के दिन गुरु पूजा की लकीर पीटते आ रहे है,क्योकि गुरु पूर्णिमा का यह पर्व हमें अपने विधालयो की गिरती हुई गरिमा,अध्यापकों या गुरुओ के प्रति गिरता हुआ सम्मान और विद्यार्थियों की बढ़ती अनुशासन हीनता की और संकेत करता है। जिस विधा का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और कल्याण की साधना था,वह विधा धन और सत्ता पाने का साधन मात्र रह गई है। इस दशा को सुधारने की दिशा में हम सब को प्रयत्न करना है,यही गुरु पूर्णिमा का संदेश है।
(कांतिलाल मांडोत)