
‘पेटीगरा साडेली आर्ट’: स्वदेशी भावना और आत्मनिर्भरता का जीवंत प्रतीक
सूरत का पेटीगरा परिवार: 150 वर्षों से लुप्त होती ‘साडेली आर्ट’ को सहेजने वाला विरासत संरक्षक परिवार
सूरत, (विशेष लेख: महेश कथीरिया) : भारत अपने समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ प्राचीन और पारंपरिक हस्तकलाओं के लिए भी पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। सदियों से भारतीय हस्तकला हमारे समाज की पहचान और लोकजीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति रही है। ऐसी ही एक दुर्लभ और अत्यंत सूक्ष्म कला है गुजरात की 1200 वर्ष पुरानी ‘साडेली वुड इनले आर्ट’, जिसे आज भी सूरत का पेटीगरा परिवार पिछले 150 वर्षों से जीवंत रखे हुए है।
सैयदपुरा कच्छिया शेरी में रहने वाला यह परिवार अपने छोटे से घर से पूरी दुनिया में अपनी अनोखी पहचान बना चुका है। आज पिता-पुत्र की जोड़ी – जीतेंद्रभाई और राकेशभाई पेटीगरा इस कला के एकमात्र संरक्षक हैं, जो पूरे देश में इस कला की विरासत को संभाले हुए हैं।
पहले के समय में यह कला राजाओं-महाराजाओं के लिए लकड़ी के बक्से और पेटियों पर नक्काशी के रूप में बनाई जाती थी। आज भी यह कलाकृतियाँ कला-प्रेमियों को आकर्षित करती हैं। देश का एकमात्र साडेली हस्तकला वर्कशॉप सूरत में है, जिसे जीतेंद्रभाई और उनके पुत्र राकेशभाई चला रहे हैं। जब यह कला विलुप्ति की कगार पर है, तब भी यह परिवार अपनी मेहनत और समर्पण से इसकी विरासत को सुरक्षित रखे हुए है। साडेली आर्ट पूरी तरह से स्वदेशी है। इसमें प्रयुक्त सभी लकड़ी और सामग्री स्थानीय क्षेत्र से प्राप्त की जाती है।

1999 में, राकेशभाई पेटीगरा, जो कि गोल्ड मेडलिस्ट इंटीरियर डिजाइनर हैं, उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर अपने पूर्वजों की इस कला को जीवित रखने का निर्णय लिया।
राकेशभाई बताते हैं :-
“साडेली वुडन आर्ट सूरत की पहचान है और इसे जीआई टैग (Geographical Indication Tag) भी प्राप्त है। यह भारत की बौद्धिक संपत्ति है और इसका मूल स्रोत पारसी संस्कृति से 1200 वर्ष पुराना है। जब पारसी समुदाय ईरान से संजान बंदरगाह के माध्यम से भारत आया, तो वे यह कला भी साथ लाए थे। बाद में जब वे सूरत में बसे, तब यह कला भारत में प्रचलित हुई।”
समय के साथ इस कला का क्षेत्र सूरत के कोट इलाक़े तक सीमित रह गया। फिर भी सदियों बाद भी यह कला आज उसी निपुणता, धैर्य और बारीकी के साथ की जाती है जैसी पहले होती थी।
साडेली वुड क्राफ्ट में लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को ज्यामितीय आकार में जोड़कर डिजाइन बनाई जाती है, जिसे ‘पारसी खातमकारी’ भी कहा जाता है।
राकेशभाई आगे कहते हैं :-
“मेरा उद्देश्य यही है कि यह कला हमारे साथ और हमारे बाद भी जीवित रहे। साडेली आर्ट केवल व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक विरासत है, जिसे जीवित रखने के लिए परिश्रम और समर्पण जरूरी है। मैं लोगों से आग्रह करता हूँ कि हर कोई कम से कम एक हस्तनिर्मित वस्तु खरीदे — ताकि यह कला जीवित रहे।”
‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘स्वदेशी अभियान’ जैसे प्रयास स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने में मदद कर रहे हैं, जो हम जैसे कारीगरों के लिए संजीवनी सिद्ध हो रहे हैं।
सरकार ने भी पेटीगरा परिवार के योगदान को सम्मानित किया है:
जीतेंद्रभाई पेटीगरा को 2002 में राज्य पुरस्कार और 2005 में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
राकेशभाई पेटीगरा को 2021 में ‘कमला अवॉर्ड’, 2022 में राज्य पुरस्कार, 2023 में राष्ट्रीय पुरस्कार और 2024 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अब तक उनके वर्कशॉप में 450 से 500 कला-प्रेमियों को इस हस्तकला का प्रशिक्षण दिया गया है। यह कला वर्षों की मेहनत, धैर्य और कलात्मक लगन का परिणाम है।
आज भी इस परिवार की कार्यशाला में विभिन्न प्राकृतिक रंगीन लकड़ियों से पारंपरिक से लेकर आधुनिक फर्नीचर और शोपीस तैयार किए जाते हैं। यह देश का एकमात्र साडेली हैंडीक्राफ्ट वर्कशॉप है, जहाँ कलाकारों को प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
इस परिवार के लिए कला केवल व्यवसाय नहीं, बल्कि साधना है। जब आज की युवा पीढ़ी तेज़ी से धन कमाने की दौड़ में है, तब पेटीगरा परिवार की नई पीढ़ी ने अपने बड़ों के पदचिन्हों पर चलकर इस कला को अपना जीवन बना लिया है।



