धर्म- समाज

बच्चों का जीवन बनाने के लिए माता पिता का त्याग अकल्पनीय

जीवन मे सैकड़ो उतार चढ़ाव के बाद लम्बा समय बिताने पर अनुभव की खरी कसौटी का लाभ जिसे मिलता है,वह अत्यन्त भाग्यशाली है। मानो बिना परिश्रम के उसने अनमोल खजाना प्राप्त कर लिया। जो नही स्कूल,कॉलेज और पाठ्यपुस्तकों से मिलता हैऔर न ही धन देकर पाया जा सकता है। यदि वह सिर्फ मिलता है तो परिपक्व अनुभवी विशिष्ट मानव के चरणों मे रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान का भंडार जिनके पास है उनकी सेवा और विनय से दिल जीतने वाला निहाल हो जाता है। वृद्धावस्था में आने पर परिवार में जो उन्हें भार के रूप में मानता अथवा अनदेखा कर उपेक्षित रवैया अपनाता है।उसे वृद्धावस्था में जो वृद्ध की भावना आहत होती है। उससे उनके दिल मे उठनेवाली पीड़ा और व्यथा से हमारा उन्नत जीवन मे व्यवधान व उन्नत कर्मो का संचय होता है। उनकी आह बसन्त की भांति फलते फूलते जीवन को पतझड़ में बदल देती है।

आज हमारे समाज मे माता पिता के साथ झगड़ा करना,गाली देना और उनका तिरस्कार करने से वृद्धजन दुःखी होते है। कई बार बेटे बहुएं माता पिता को घर से बाहर निकाल देते है। समाज के डर से और बच्चों के प्रति प्यार की पराकाष्ठा उनको पुलिस स्टेशन जाने से रोकती है। आज समाज मे बढ़ रही विषमता और दूरियां परिवार को तोड़ने के लिए पर्याप्त है।पढ़े लिखे लोग माता पिता को अनपढ़ और असभ्य समझते है। वो भूल जाते है कि बच्चों के जीवन घड़तर मे माता पिता का जीवन घिस जाता है। बच्चों का जीवन बनाने में माता पिता का त्याग अकल्पनीय होता है। आज सरकारो ने माता पिता की सेवा नही करने वालो पर शिकंजा कसा है। कानून का प्रावधान है।

श्रवणकुमार के माता पिता की कल्पित आत्मा से जो राजा विक्रमादित्य को दुःखद वचन कहे।जैसे हम बेटे के वियोग में तड़प रहे है वैसे ही राजा तू भी तड़प कर मरेगा।उन कर्मो के भार से राजा को विशाल वैभव और परिवार भी नही बचा सका। इसमें जैक या चैक नही चलता है।

सबसे बड़ा तीर्थ माता पिता के चरणो में है। भगवान का स्वरूप मानकर उनकी सेवा करनी चाहिए।चाहे उनसे हमारा कोई संबंध और रिस्ता न हो। उनकी सेवा बलिहारी है। उसी में तप,जप और साधना का रहष्य छिपा हुआ है। एक बार व्यक्ति सेवा पूजा को गौण कर सेवा का प्रसंग आने पर पहले वृद्ध का सहारा बन जाये तो ज्यादा पुण्य का लाभ मिलता है। हमारे देश मे वृद्धाश्रम का निर्माण ही सभी धर्मों पर कलंक है। भारत जैसे आध्यात्मिक देश मे वृद्धजन की दहनीय स्थिति चिंता का विषय है। मानो धर्म की शिक्षाएं ,पुस्तको की शोभा और धर्म स्थल में आध्यात्मिक प्रवचन तक सीमित रह गया है। जीते जी माता पिता को पानी नही पिलायेगा और मरने के बाद उनकी प्रशंसा करेगा। कही हम संस्कृति के उपासक तो नही बन रहे है? उनकी जीते जी खबर नही लेना और मरने के बाद आंसू बहाना पाखंड है। ऐसी दुरात्मा की भक्ति भी भगवान स्वीकार नही करते है। भगवान और दुनिया मे उसे नरक में जाने से रोक नही सकती है।


( कांतिलाल मांडोत )

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