धर्म- समाज

धर्म किसी को लड़ना नही सिखाता

भारत धर्म प्राण राष्ट्र के नाम से जाना जाता है।संसार के लोगो की मान्यता है कि जितने महापुरुष भारत वर्ष ने दिए,उसका दशमांश भी दुनिया के अन्य राष्ट्र ने नही दे पाये।सभ्यता और मानव संस्कृति का सूर्योदय सर्वप्रथम भारत भूमि पर ही हुआ। अभिप्राय है कि ज्ञान का उजाला सर्व प्रथम यहाँ फैला। यो भी सूर्योदय से पहले पूर्व दिशा ही आलोकित होती है। पश्चिम को बाद में ही प्रकाश मिलता है।हममें चेतना आई तो हमने स्वानुभूत ज्ञान विश्व मे फैलाकर विश्व को भी प्रकाश दिया। उसे जगाया। आज विश्व मे ज्ञान का जो उजाला दिखाई दे रहा है,वह हमारे द्वारा ही फैलाया गया है। जैसे सूर्योदय से धरा का अंधकार नष्ट हो जाता है,उसी प्रकार मनरूपी आकाश का अंधकार ज्ञान के सूर्य से नष्ट हो गया। जहाँ अज्ञान है,वही दुःख है।ज्ञान होने पर शोक चला जाता है। सारे विश्व मे अज्ञानरूपी अंधकार के चले जाने पर संसार शोकरहित हो जाता है। जिस भारत ने विश्व को शोकरहित बनाने का प्रयास किया,ज्ञान का आलोक फैलाया,आज वही भारत शोक के सागर में डूबा है। धर्मप्राण देश धर्म से विमुख हो चुका है। चारो और घृणा का सामाज्य फैला हुआ है। जाति, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर आज हिंसा का तांडव हो रहा है।

हम सिर्फ सुनते है

धर्म किसी को लड़ना नही सिखाता। जो धार्मिक है,वह हिंसा का नही बल्कि प्रेम का मार्ग चुनता है।धर्म चाहे कोई भी हो,धर्म ही होता है। पानी शीतलता प्रदान करता है,चाहे पानी झरने का हो या कुएं का,सागर का हो या झील का-पानी अपना धर्म नही छोड़ता। हिन्दू ,मुस्लिम,बौद्ध ईसाई या पारसी -सभी के धर्म संप्रदाय प्रेम का ही सन्देश देते गये।यह सब होते हुए भी विडम्बना यह है कि लोगो ने धर्म को सुना है,समझा नही है। जैन धर्म के चार तीर्थो में एक तीर्थ श्रावक भी है। श्रावक का अभिप्राय यह है कि जो श्रवण करता है,सुनता है।तीर्थंकरों की वाणी श्रावको ने सिर्फ सुनी है। यदि सुनकर समझ जाते तो इस भारत का रूप ही कुछ दूसरा होता।केवल सुनना ही काफी नही है। रामचरितमानस में ज्ञान वैराग्य का उपदेश देते हुए राम ने लक्ष्मण से कहा है-सुनहु तात मन मति चित लाई। अर्थात मन लगाकर सुनो।सुनने में मन इधर उधर न भटके,एकाग्रता हो। सुनने के साथ ही उसे मति यानि बुद्धि लगाकर समझो और समझने के बाद चित लगाकर उस पर आचरण करो। इस तरह पहले सुनना, सुनकर समझना और समझकर उसको जीवन ने उतारने से ही श्रावक शब्द की सार्थकता है। लेकिन सुनने समझने करने में तालमेल न होने की स्थिति मात्र जैन श्रावको की ही नही ,सभी धर्मानुयायियों की हो रही है। वे सब अपने धर्म गुरु की वाणी को केवल सुनते है,बल्कि आवश्यकता समझने की है। धर्म तो केवल सत्य की ही बात करता है। सभी धर्म सत्य की और ले जाते है तो फिर सत्य कैसे सत्य का विरोधी हो सकता है? अमृत कैसे अमृत का विरोधी हो सकता है?

दोषी कौन?

कोई व्यक्ति अग्नि को लेकर अपने घर मे आग लगा दे तो इसमें दोष किसका होगा?अग्नि को आप दोषी मानेंगे या उसको जिसने घर मे अग्नि लगाई है?निश्चित रूप से दोष अग्नि का न होकर अग्नि लगाने वाले का ही है?ठीक उसी प्रकार धर्म की बागडोर उन लोगो के हाथ मे आ गई,जो धर्म का दुरुपयोग करने में ही धर्म का पालन समझने लगे। धर्म के अन्धानुयायियो का वर्चस्व बढ़ जाने के कारण ही जेहाद लड़े गये और धर्म बदनाम हो गया।

संप्रदाय का जहर

संविधान ने भारत को धर्म निरपेक्ष घोषित किया है।धर्मविहीन राष्ट्र न होकर यह है कि किसी भी व्यक्ति की धार्मिक मान्यता में अपना हस्तक्षेप नही करेगी।गांधीजी ने धर्मनिरपेक्ष का अर्थ किया था सभी धर्मो के प्रति आदर भाव।प्रत्येक नागरिक अपने ढंग से प्रार्थना पूजा के लिए स्वतंत्र है।इसमें राष्ट्र का कही कोई दखल नही होगा।वह सभी लोगो की धार्मिक भावना का सम्मान करता है।प्रत्येक नागरिक का यही दाहित्व है कि वह ऐसा कोई काम न करे,जिससे राष्ट्र कमजोर हो।धर्म मे पनपते साम्प्रदायिक विद्वेष से धर्म कमजोर होता है।वह टूटने लगता है।इससे कुछ स्वार्थी लोग संघर्ष पर उतर आते है,वे लोगो से खिलवाड़ करके धर्म के स्वरूप की धज्जियां उड़ा देते है।वे न तो स्वयं का भला करते है और न ही धर्म से उनका कोई लेना देना है।भारत को सम्प्रदायवाद ने जितना कमजोर किया,उतना कोई नही कर पाया।भारत मे सम्प्रदाय का जहर दिनोदिन बढ़ता गया।भारत वह देश है जहाँ हजारो वर्ष पहले सम्राट अशोक ने गिरनार में प्राप्त शिलालेख पर यह संदेश खुदवाया था।मैं आपके पूजा पाठ भक्ति से अधिक खुश नही हूँ। आप परस्पर प्रेम से बिना लड़े रहे तो मैं खुश रहूंगा धर्म के नाम पर दूसरे का तिरस्कार करना उपयुक्त नही है। हर धर्म यही बोध कराता है कि सभी अपने है।धर्म के सच्चे अनुयायी की सतत अनुभूति यही होती है।किससे वैर करू,सब तो अपने है।

आदर्श समाज की रचना

समाज को आदर्श बनाना है,राष्ट्र को मजबूत रखना है तो सभी देशवासियों को द्वेषभाव त्यागना होगा। मत्सरभाव से बाहर निकलना होगा। हमे सुंदर और पवित्र भावो की रचना करनी होगी। लेकिन इसमें हम सभी का सहयोग अपेक्षित है।प्रत्येक समाज मे जागृति आये।वह संगठित बने। समाज का संग़ठन मजबूत होगा तो देश मजबूत बनेगा।दुर्भावना से प्रेरित होकर बनाये गए संगठन जल्दी टूट जाते है एक संगठन की सच्चाई को दूसरा स्वीकारे, इसी में सबका भला है। समाज और राष्ट्र का कल्याण है।

( कान्तिलाल मांडोत )

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