माटी की खुशबू…
कई दिनों से मन ही मन में
कुढ़ रहा था …और….
उदास रह रहा था….मड़हा…!
एकांत पाकर धीरे से…मड़हे ने….
किसान से पूछ ही लिया…..
क्या मैंने तुम्हें छाया नहीं दी,
धूप,गर्मी,बारिश से नहीं बचाया,
क्या तेरे हीरा-मोती को…
अपने नीचे ठाँव नहीं दी….?
क्या तुम्हें कद्दू,लौकी,नेनुवा और
सेम की सौगात नहीं दी….
तुम्हारे दरवाजे के पहरेदार,
कुत्ते को भी शरण दी…
रे अन्नदाता…धरती के भगवान….
जाड़े में….कौड़ की आग में…..
तुमने मेरी ही छाया में भुने…आलू
तुम्हारे बड़े-बूढ़ों ने करी पंचायत,
खेले जुआ,ताश के पत्ते और
मज़े से हुक्के गुड़गुड़ाये….
पता नहीं होगा तुमको
मेरी ही छाया तले…खुद तुम्हें…
बचपन में जाने कितनों ने….
खिलाये,हँसाये-गुदगुदाए….
मौका पाकर तुमने तो
भूसा तक भी भरा,
अनाज की बोरी भी रखा…
यहाँ तक कि ईंधन के लिये
कंडी और लकड़ी भी….
मेरे मालिक बताओ ना मुझे
इतने सारे परोपकार को…!
तू बिसर क्यों जाता है….?
दो पैसे हाथ क्या आते हैं,
तू टीन-सीमेंट से होता हुआ
कंक्रीट में बदल जाता है…
इतना दर्द भी मुझे मंजूर है…भाई
पर तेरी इच्छा…कहाँ कभी अघाई
कभी मैं तेरी पहचान था,
अब तो तू मुझे…अपने महल के..
एक कोने में स्थान देता है,
सजाकर वहीं पर अपना
बीयर-बार बना लेता है….
मदहोश होकर…खूब पीकर….
गाँव-देश और समाज में
खुद को शर्मसार करता है…
अरे मित्र…मेरे नीचे तो..तुम्हारा..
नौ दिशाओं से आना जाना था,
नौ दिशाओं से खुला था….
मेरा द्वार….तुम्हारे लिए….!
अब देखो न….!
तुम केवल एक मेन गेट से
बंद हो जाते हो…
एक और केवल एक दिशा तक ही
सीमित हो गये हो…..
मुझे गम इस बात का नहीं है मित्र
कि मेरा अस्तित्व खो रहा है..पर..
तू गलत रास्ते पर जा रहा है,
इसलिये…मेरा मन रो रहा है….
इस कदर तेरा परिवर्तन देखकर
मन मेरा सोचने पर विवश है…
तू क्यों अपनी माटी की खुशबू
भूले जा रहा है…..?
तू क्यों अपनी माटी की खुशबू
भूले जा रहा है…..?
रचनाकार…
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद–कासगंज